जमाना कैसा आया रे
रोटी पो पो आंखें फूटी ,यह कहती थी दादी
और रसोई में अम्मा ने भी सारी उम्र बिता दी
किंतु आज की महिलाओं को है पूरी आजादी स्विगी टेलीफोन किया, मनचाही चीज मंगा दी
या फिर होटल में जाकर के खाना खाया रे जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे
बड़ी सादगी से रहते थे ,बूढ़े बड़े हमारे
गर्मी पड़ती,खुली हवा में छत पर सोते सारे लालटेन घर रोशन करती, ना बिजली पंखा रे
अब तो हर कमरे में पंखा और ऐसी चलता रे प्रगति में जीवन कितना आसान बनाया रे
जमाना कैसा होता था ,जमाना कैसा आया रे
जीवन की शैली मे देखो आया कितना अंतर
पहले कुए का पानी था ,अब बोतल में वाटर लकड़ी से चूल्हा जलता था अब है गैस का बर्नर
पहले खाते थे हम मठरी,अब खाते हैं बर्गर खानपान में अब कितना परिवर्तन आया रे
जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे
पहले चिट्ठी पत्री होती, रोज डाकिया लाता टेलीग्राम कभी आता तो सारा घर घबराता टेलीफोन अगर हो घर में स्टेटस कहलाता
अब तो घर-घर ,सबके हाथों मोबाइल लहराता
साथ बात के, फोटो भी सबका दिखलाया रे जमाना कैसा होता था जमाना कैसा आया रे
मिट्टी वाले घर होते थे पुते हुऐ गोबर में
सात आठ बच्चे होते थे रौनक रहती घर में
तड़क भड़क से दूर ,सादगी रहती जीवन भर में
पास पड़ोसी सदा साथ थे सुख दुख के अवसर में
फ्लैट संस्कृती ने शहरों की,सभी भुलाया रे
जमाना कैसे होता था, जमाना कैसा आया रे
न तो कार ना स्कूटर थी ,पैदल आना जाना
एक थाली में दाल और रोटी बड़े प्रेम से खाना छोटी एक बजरिया जिसमे सब कुछ था मिल जाना
आसपास थे पेड़ ,तोड़कर आम और जामुन खाना
माल संस्कृति ने सबका ही किया सफाया रे जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे
नहीं रहे अब प्रेम पत्र वह खुशबू वाले प्यारे
मोती जैसे हर अक्षर को जाता था चूमा रे
अब तो चैटिंग डेटिंग होती, संग करते घूमा रे
घूंघट उठा, देखना चेहरा , ये थ्रिल नहीं बचा रे शादी पहले लिव इन ने भट्टा बैठाया रे
जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे
मदन मोहन बाहेती घोटू