घर के साथ इस महंगाई में, ये देह गिरवी धरने होंगे ।
छोटी-सी एक नौकरी है, ये कैसे मैं कर पाउँगा,
रोज ये रोना रोता था, मैं जीते जी मर जाऊंगा ।
जितनी जल्दी उतने कम दहेज़ में काम बन जायेगा,
किसी तरह शादी कर दूँ, हर बोझ तो फिर टल जायेगा ।
इस सोच से ग्रसित बाप ने एक दिन कर दी फिर मनमानी,
बारह बरस की आयु में गुडिया की ब्याह उसने ठानी ।
सोलह बरस का देख के लड़का करवा ही दी फिर शादी,
शादी क्या थी ये तो थी एक जीवन की बस बर्बादी ।
छोटी-सी गुड़िया के तो समझ से था सबकुछ परे,
सब नादान थे, खुश थे सब, पर पीर पराई कौन हरे ।
ब्याह रचा के अब गुड़िया को ससुराल में जाना था,
खेल-कूद छोड़ गृहस्थी अब उस भोली को चलाना था ।
उस नादान-सी 'बोझ' के ऊपर अब कितने थे बोझ पड़े,
घर-गृहस्थ के काम थे करने, वो अपने से रोज लड़े ।
इसी तरह कुछ समय था बीता फिर एक दिन खुशखबरी आई,
घर-बाहर सब खुश थे बड़े, बस गुड़िया ही थी भय खाई ।
माँ बनने का मतलब क्या, उसके समक्ष था प्रश्न खड़ा,
तथाकथित उस 'बोझ' के ऊपर आज एक दायित्व बढ़ा ।
कष्टों में कुछ मास थे गुजरे, फिर एक दिन तबियत बिगड़ा,
घर के कुछ उपचार के बाद फिर अस्पताल जाना पड़ा ।
देह-दशा देख डॉक्टर ने तब घरवालों को धमकाया,
छोटी-सी इस बच्ची का क्यों बाल-विवाह है करवाया ?
माँ बनने योग्य नहीं अभी तक देह इसका है बन पाया,
खुशियाँ तुम तो मना रहे पर झेल रही इसकी काया ।
शुरू हुआ ईलाज उसका पर होनी ही थी अनहोनी,
मातम पसर गया वहां पर सबकी सूरत थी रोनी ।
बच्चा दुनिया देख न पाया, माँ ने भी नैन ढाँप लिए,
चली गई छोटी-सी गुड़िया, बचपन अपना साथ लिए ।
साथ नहीं दे पाया, उसके देह ने ही संग छोड़ दिया,
आत्मा भी विलीन हुई, हर बंधन को बस तोड़ दिया ।
एक छोटी-सी गुड़िया थी वो चली गई बस याद है,
ये उस गुड़िया की कथा नहीं, जाने कितनों की बात है ।
ऐसे ही कितनी ही गुड़िया समय पूर्व बेजान हुई,
कलुषित सोच और कुरीत के, चक्कर में बलिदान हुई ।