बूढ़ा बंदर
वह छड़ी सहारे चलती है,
मैं भी डगमग डगमग चलता
फिर भी करते छेड़ाखानी,
हमसे न गई उच्छृंखलता
याद आती जब बीती बातें,
हंसते हैं कभी हम मुस्कुराते
भूले ना भुलाई जाती है ,
वह मधुर प्रेम की बरसाते
मन के अंदर के बंदर में ,
फिर से आ जाती चंचलता
वो छड़ी सहारे चलती है ,
मैं भी डगमग डगमग करता
आ गया बुढ़ापा है सर पर
धीरे-धीरे बढ़ रही उमर
लेकिन वो जवानी के किस्से
है मुझे सताते रह-रहकर
वह दिन सुनहरे बीत गए,
रह गया हाथ ही मैं मलता
वो छड़ी सहारे चलती है ,
मैं भी डगमग डगमग करता
मुझको तड़फा ,करती पागल
ये प्यार उमर का ना कायल
उसकी तिरछी नजरें अब भी,
कर देती है मुझको घायल
कोशिश नियंत्रण की करता ,
बस मेरा मगर नहीं चलता
वो छड़ी सहारे चलती है,
मैं भी डगमग डगमग चलता
हम दो प्राणी ,सूना सा घर
एक दूजे पर हम हैं निर्भर
है प्यार कभी तो नोकझोंक
बस यही शगल रहता दिनभर
वह चाय बनाकर लाती है ,
और गरम पकोड़े मैं तलता
वो छड़ी सहारे चलती है,
मैं भी डगमग डगमग करता
मदन मोहन बाहेती घोटू
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