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सोमवार, 29 मई 2017

बढ़ती हुई उम्र 

बढ़ती हुई उमर  में अक्सर ,ऐसे हाल नज़र आते है 
मुंह पोपला सा लगता है, पिछले गाल नज़र आते है
 
कभी फूल सा महकाता मुख,लगता मुरझाया,मुरझाया 
छितरे श्वेत बाल गालों पर ,काँटों का हो जाल बिछाया 
या तो सर गंजा होता या   उड़ते बाल नज़र आते है 
बढ़ती हुई उमर  में अक्सर ,ऐसे हाल नज़र आते है 

कभी चमकती थी  जो आँखें,अब लगती धुंधलाई सी है 
बाहुपाश वाले हाथों पर ,आज झुर्रियां  छाई  सी है 
यौवन का धन जब लुट जाता ,सब कंगाल नज़र आते है 
बढ़ती हुई उमर  में अक्सर ,ऐसे हाल नज़र आते है 

तन कर चलने वाला ये तन,हो जाता अशक्त,ढीला है 
लाली लिए कपोलों का रंग ,अब पड़ने लगता पीला है 
थोड़े बेढब और बेसुरे ,हम बदहाल  नज़र आते है 
बढ़ती हुई उमर में अक्सर ,ऐसे हाल नज़र आते है 

फिर भी कोई सुंदरी दिखती,तो मन मचल मचल जाता है 
मुई आशिक़ी नहीं  छूटती ,तन कितना ही ढल जाता है 
याद जवानी के बीते दिन,,गुजरे साल नज़र आते है 
बढ़ती हुई उमर में अक्सर ,ऐसे हाल  नज़र आते है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
जीने में मुश्किल होती है 

इतनी सुविधा ग्रस्त हो गयी ,आज हमारी जीवनशैली ,
कि विपरीत परिस्तिथियों में ,जीने में मुश्किल होती है 
यूं तो कई सफलता मिलती ,पर आनंद तभी आता है ,
पग पग बाधाओं से लड़ कर ,जब मंजिल हासिल होती है 

गर्दन में रस्सी बंधवा कर ,गगरी कुवे में जाती है ,
पानी में डूबा करती है ,तब उसका रीतापन भरता 
कभी किसी पनिहारिन हाथों ,ओक लगा ,पीकर तो देखो,
तुम्हे लगेगा ऐसा जैसे ,कलशों से है  अमृत  झरता 
पर अब ये सुख ,मिल ना पाता ,क्योंकि नल जल के आदी हम,
प्यास हमारी तब बुझती है ,जब कि बोतल 'चिल ' होती है 
इतनी सुविधा ग्रस्त हो गयी,आज हमारी जीवन शैली,
कि विपरीत परिस्तिथियों में ,जीने में  मुश्किल होती है 

बाती  डूबी रहे तैल में और जलाती रहती खुद को ,
तब ही अंत तिमिर का होता ,और जगमग होता है जीवन 
दीवाली को दीपोत्सव में ,सजती है दीपों की माला,
रोज आरती और पूजा में ,दीप प्रज्जवलित करते है हम 
आत्मोत्सर्ग दीपक करते है ,हमको लगते टिमटिम करते  
बिजली की बिन ,हमे एक पल ,ख़ुशी नहीं हासिल होती है 
इतनी सुविधाग्रस्त हो गयी ,आज हमारी जीवन शैली ,
कि विपरीत परिस्तिथियों में,जीने में मुश्किल होती है 

शीतल हवा ,वृक्ष की छाया ,भुला दिया ऐ,सी,कूलर ने,
निर्मलता नदियों के जल की,हजम कर गया है 'पॉल्यूशन'
परिस्तिथियाँ कम बदली है,उससे ज्यादा बदल गए हम,
भौतिकता में ऐसे उलझे,भूल गए प्रकृति का पोषण  
भूल गए सब रिश्ते नाते, भूले हम अहसानफरोशी ,
क्या ऐसी जीवन पद्धिति भी,जीने के काबिल होती है 
इतनी सुविधाग्रस्त हो गयी ,आज हमारी जीवनशैली ,
कि विपरीत परिस्तिथियों में ,जीने में मुश्किल होती है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
दास्ताने मजबूरी 

कभी हम में भी तपिश थी ,आग थी,उन्माद था ,
      गए अब वो दिन गुजर ,पर भूल हम पाते  नहीं 
तमन्नाओं ने बनाया इस कदर है बावला ,
      मचलता ही रहता है मन ,पर हम समझाते नहीं 
जब महकते फूल दिखते या चटकती सी कली,
      ये निगोड़े  नयन  खुद पे ,काबू  रख  पाते  नहीं 
हमारी मजबूरियों की इतनी सी है दास्तां ,
       चाहते है चाँद  ,जुगनू  तक पकड़  पाते  नहीं 

घोटू  
अप्सरा बीबी 

ज्यों  अपने घर का खाना ही ,सबको लगता स्वादिष्ट सदा 
अपने खटिया और  बिस्तर पर,आती है सुख की नींद सदा  
जैसे अपना हो  घर छोटा  ,पर हमें  महल सा लगता है 
अपना बच्चा कैसा भी हो ,पर  खिले कमल सा लगता है 
हर पति को बिस्तर पर बीबी ,सदा अप्सरा लगती  है 
अच्छी अच्छी हीरोइन से ,नहीं कम जरा  लगती है
मीठी मीठी बात बना कर ,पति पर जादू  चलवाती   
कुछ मुस्का कर,कुछ शरमा कर,बातें सारी मनवाती
महकाती उसकी रातों को ,महक मोगरा  लगती है 
हर पति को बिस्तर पर बीबी,सदा अप्सरा लगती है 
कभी मोम  की गुड़िया लगती,कभी भड़कता सा शोला 
कभी रिझाती अपने पति को,दिखला कर चेहरा भोला 
ना ना  कर पति को तड़फती,नाज और नखरा करती है 
हर पति  को बिस्तर पर बीबी ,सदा अप्सरा लगती है 
शेर भले कितना हो पति पर ,वो बीबी से डरता है 
उस आगे भीगी बिल्ली बन ,म्याऊं ,म्याऊं करता है 
अच्छे भले आदमी को वो  ,इतना पगला करती है 
हर पति को बिस्तर पर बीबी , सदा अप्सरा लगती है 
पूरी निष्ठा से फिर खुद को पूर्ण समर्पित  कर देती 
दिल से सच्चा प्यार लुटा ,जीवन में खुशियां भर देती 
लगती साकी और कभी खुद,जाम मदभरा  लगती है 
हर पति को बिस्तर पर बीबी,सदा अप्सरा  लगती है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'' 

भूटान में 

मैं तुम्हे क्या बताऊँ ,भूटान में क्या है 
उन हरी भरी  पहाड़ियों का ,अपना ही मज़ा है 
वो प्रकृति के उरस्थल पर ,उन्नत उन्नत शिखर 
जिनके सौंदर्य का रसपान ,मैंने किया है जी भर 
उन उन्नत शिलाखंडों में शिलाजीत तो नहीं मिल पायी 
पर उनके  सानिध्य  मात्र से, मिली एक ऊर्जा सुखदायी 
मैं आज भी उन पहाड़ों के स्पंदन को महसूस करता हूँ 
और प्रसन्नता से सरोबार होकर ,
फिर से उन घाटियों में विचरता हूँ
जी करता है कि मैं मधुमक्खी की तरह उड़ कर,
फिर से लौट जाऊं उन शिखरों पर 
और वहां खिले हुए फूलों का रसपान कर लू 
और मीठी यादों का ,ढेर सारा मधु ,
अपने दिल  में भर लू 
वहां की हवाओं की सौंधी सौंधी खुशबू,
आज भी मेरे नथुनों में बसी हुई है 
वो नीले नीले पुष्पों की सेज ,
आज भी मेरे सपनो में सजी हुई है 
जैसे गूंगे को ,गुड़ का स्वाद बताना मुश्किल है 
वैसे ही मुझे भी ,वहां की याद भुलाना मुश्किल है 

घोटू 
  

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