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शनिवार, 25 जून 2016

कहीं देर न होजाये

         कहीं देर न होजाये

याद है अच्छी तरह से ,हमे अपने बचपन में ,
आसमा देखते थे ,नीला नीला लगता था ,
आजकल धुंधलका इतना भरा फिजाओं में ,
मुद्द्तें हो गई ,वो  नीला आसमां न दिखा
अँधेरा होते ही जब तारे टिमटिमाते थे,
घरों की छतों पर आ चांदनी पसरती थी ,
चांदनी में पिरोया करते सुई में धागा ,
पूर्णिमा का मगर ,वो वैसा चन्द्रमा न दिखा
थपेड़े मार कर ठंडी  हवा  सुलाती थी ,
सुनहरी धूप,सुबह ,थपकी दे जगाती थी,
चैन की नींद जितनी हमने सोयी बचपन में ,
क्या कभी ,फिर कहीं ,हमको नसीब होगी क्या
वो बरसती हुई सावन की रिमझिमें ,जिसमे,
भीग कर ,कूद कूद,नाचा गाया करते थे ,
वक़्त ने इस तरह माहौल बदल डाला है,
कभी कुदरत ,हमारे ,फिर करीब होगी क्या
इस कदर हो गया भौतिक है आज का इन्सां ,
दिनों दिन बढ़ती ही जाती है भूख पाने की ,
आज के दौर  में,ये दौड़ ,होड़ की अंधी ,
सभी छोड़ पीछे ,लोग भागते  आगे
हवाओं में कहीं इतना जहर न भर जाए ,
सांस लेने में भी हम सबको परेशानी हो,
अभी भी वक़्त है ,थोड़ा सा हम सम्भल जाएँ ,
देर हो जायेगी ,अब भी जो अगर ना जागे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बड़े बनने की कला

       बड़े बनने की कला

जब तुम अपने से छोटे का वजूद भुला ,
खुद के बड़े होने की बात बताते हो 
तो तुम खुद छोटे हो जाते हो 
पहले ,एक रूपये के चौंसठ पैसे होते थे ,
और एक पैसे की भी तीन पाई थी
जो सबसे छोटी इकाई थी
अधेला,दो पैसा,इकन्नी,दुवन्नी ,
चवन्नी और अठन्नी होती थी
तब एक पैसे की भी वेल्यू होती थी
और रुपैया होता बड़ा दमदार था
वो कहलाता कलदार था
फिर एक रूपये के सौ पैसे हुए,
और धीरे धीरे पैसा छोटा होता गया
तो रुपया भी अपनी अहमियत खोता गया
समय के साथ एक,दो ,पांच,दस और बीस ,
पैसे के सिक्के लुप्त होते गए ,
और फिर चवन्नी की भी नहीं चली
आज अठन्नी का अस्तित्व तो है ,
पर नाममात्र का है,
न जाने कब बंद हो जाए ये पगली
देखलो ,किस तरह दिन फिरते है
सड़क पर पड़ी अठन्नी को उठाने के लिए,
लोग झुकने की जहमत नहीं करते है
जैसे जैसे रुपया ,बड़ी मछलियों की तरह ,
अपनी ही छोटी छोटी मछलियों को खाता गया
अपनी ही कीमत घटाता गया
क्योंकि छोटे के सामने ही ,
बड़ों की कीमत आंकी जाती है
जब कोई छोटी लकीर होती है ,
तभी कोई दूसरी लकीर ,बड़ी कहलाती है
इसलिए ,यदि बड़े बनना है,
तो अपने से छोटे का अस्तित्व बना रहने दो
अपनी इकन्नी,दुअन्नी ,चवन्नी को ,
लुप्त मत होने  दो
अपनी कलदार वाली गरिमा को मत खोने दो
क्योंकि जब तक छोटे है ,
तब तक ही तुम बड़े कहलाओगे
वर्ना एक दिन ,एक छोटी सी इकाई ,
बन कर रह जाओगे
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

सफलता के पेड़े

          सफलता के पेड़े 

करने पड़ते पार रास्ते ,जग के टेढ़े मेढ़े
सहना पड़ते तूफानों के ,हमको कई थपेड़े
पग पग पर बाधायें मिलती अपनी बांह पसारे,
परेशान करते है हमको ,कितने रोज बखेड़े
अगर हौंसला जो बुलंद है,तो किसमे हिम्मत है,
एक बाल भी कोई तुम्हारा ,आये और उंखेडे 
कहते,विद्या ना मिलती है,बिना छड़ी के खाये ,
कान तुम्हारे अगर गुरूजी ने जो नहीं उमेडे 
सुखमय जीवन जीने का है यही तरीका सच्चा ,
शांत रहो, प्रतिकार करो मत,कोई कितना  छेड़े
सच्ची लगन ,बलवती इच्छा और साहस हो मन में ,
तो फिर पार लगा करते है, आसानी  से  बेड़े
कितनी खटपट,कितने झंझट ,हमे झेलने पड़ते ,
तभी सफलता के मिलते है,खाने हमको पेड़े 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है
योगी भी हूँ, भोगी भी हूँ ,
और थोड़ा सा ,ढोंगी भी हूँ,
बहुत विदेशों में घूमा हूँ ,
शौक मगर फिर भी देशी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
पीज़ा भी अच्छा लगता है ,
डोसा भी है मुझको भाता
चाउमिन से स्वाद बदलता ,
और बर्गर खा कर मुस्काता
लेकिन रोज रोज खाने में ,
दाल और रोटी   ही खाता
केक पेस्ट्री कभी कभी ही,
चख लेना बस मुझे सुहाता 
किन्तु जलेबी ,गरम गरम हो,
या गुलाबजामुन रस डूबे,
खुद को रोक नहीं मै पाता ,
गर मिठाई रबड़ी जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
कभी ,नहीं दुःख में रो पाता ,
कभी ख़ुशी में आंसूं आते
मैंने अब तक उम्र गुजारी ,
बस यूं ही ,हँसते,मुस्काते
चेहरे पर खुशियां ओढ़ी है
अपने मन का दर्द छिपाते
थोड़ा चलना अब सीखा हूँ,
धीरे धीरे ,ठोकर  खाते
कितनी बार गिरा,सम्भला हूँ,
पर फिर भी ना हिम्मत हारी ,
मुझे पता है ,टेडी मेढ़ी ,
जीवन की राहें कैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
 मुझे नहीं बिलकुल आता है,
किसी फटे में टांग अड़ाना 
कोई बेगानी शादी में ,
बनना अब्दुल्ला ,दीवाना
बन मुंगेरीलाल देखना ,
सपना कोई हसीन,सुहाना
डींग मारना बहादुरी की ,
कॉकरोच से पर डर जाना
लाख शेरदिल कहता खुद को ,
लेकिन बीबी से डरता हूँ ,
उसके आगे मेरी हालत,
हो जाती गीदड़ जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बदलाव

               बदलाव

याद हमे वो कर लेते है ,तीज और  त्योंहारों में
ये क्या कम है ,अब भी हम ,रहते है उनके ख्यालों में
एक जमाना होता था जब  हम मिलते थे रोज ,
नाम हमारा पहला होता ,उनके चाहने वालो में
सच बतलाना ,कभी याद कर  ,वो बीते  लम्हे ,
क्या अब भी झन झन होती है ,दिल के तारों में
साथ समय के ,ये किस्मत भी ,रंग बदलती है ,
कितना परिवर्तन आता ,सबके व्यवहारों में
अब ना तो फूलों की खुशबू ,मन महकाती है,
और चुभन भी ना लगती है ,अब तो खारों में
समझ न आता ,मै बदला हूँ,या बदले है आप,
पर ये सच,बदलाव आ गया ,इतने सालों में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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