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रविवार, 27 नवंबर 2011

तकियों के क्या करें दोस्ती.......

         ग़ज़ल
तकियों के क्या करें दोस्ती.......
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तकियों से क्या करें दोस्ती,आये पास सुला देतें है
शीशे के प्याले अच्छे है,भर कर जाम,पिला देते है
बहुत मुश्किलें,जीवनपथ पर,पत्थर,कंकर है,कांटे है,
पर जूते है सच्चे साथी,रास्ता पार करा देते है
एक बार जो तप जाए तो,बहुत उबाल दूध में आता,
लेकिन चंद दही के कतरे,सारा दूध जमा देते है
अरे इश्क करने वालों का,ये तो है दस्तूर पुराना,
मालुम है कलाई थामेंगे,बस ऊँगली पकड़ा देते है
दो बुल (bull )अगर प्यार से मिलते,बन जाते नाज़ुक बुलबुल से,
चार प्यार के बोल तुम्हारे,पत्थर भी पिघला देते है
सुना केंकड़ों की बस्ती में,यदि कोई ऊपर उठता है,
कई केंकड़े टांग खींच कर,नीचे उसे गिरा देते है
मारो अगर  किसी हस्ती को,पब्लिक में जूता या थप्पड़,
ब्रेकिंग न्यूज़ ,मिडिया वाले,हीरो तुम्हे बना देते है
यही नियम होता प्रकृति का,कि चिड़िया के बच्चे बढ़  कर ,
उड़ना  सीख,अधिकतर देखा,अपना नीड़ बना लेते है
सुनते धरम,दान,पूजा से,अगला जनम सुधर जाएगा,
इस चक्कर में कई लोग ये,जीवन यूं ही गवां देते है
जीवन चुस्की एक बरफ की,समझदार कुछ खाने वाले,
चूस चूस कर,घूँट घूँट कर,इसका बड़ा मज़ा लेते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?
रागिनी से राग गाकर क्या विरह का गान गाउॅ?
मैं अगर गा भी सका तो वह विरह का गान होगा।
छेड कर कोई गजल मैं क्यों समां बोझिल बनाउॅ?
सोचता हू दूर जाकर इस जहॉ को भूल जाउॅ।
याकि अपने ही हृदय का खून कागज पर बहाउॅ।
जानता हू कुछ लिखूगा वह प्रिये संवाद होगा।
क्यों निरर्थक स्याह दिल को कागजों में फिर लगाउॅ।
तिमिर की इस कालिमा में अरुण को कैसे भुलाउॅ?
जबकि खारा हो जहॉ प्रिय ! प्यास को कैसे बझाउॅ?
जिन कंटको से हृदय बेधित क्या उन्हें प्रियवर कहाउॅ?
क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

शनिवार, 26 नवंबर 2011

कैसी होगी वो मुलाकात |



जाने दिन होगा या रात
कैसी होगी वो मुलाकात,
अंधियारे को भेदती 
मंद मंद चाँद की चांदनी 
और हल्की सी बरसात 
कुछ शरमीले से भाव 
कुछ तेरी कुछ मेरी बात 
अनजाने से वो हालत 
कैसी होगी वो मुलाकात |

आलम-ए-इश्क वजह 
बन तमन्नाओं से 
सराबोर निगाहों के साये 
में हुयी तमाम बात 
तकते हुए नूर को तेरे
ठहरी हुयी सी आवाज 
अनजाने से वो हालात
कैसी होगी वो मुलाकात | 

भगवती शांता परम

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)

भगवती शांता परम सर्ग-१  प्रस्तावना

भगवती शांता परम-सर्ग-२  शिशु-शांता 


सर्ग-4
शिक्षा और संस्कार 
 भाग-1
शान्ता के चरण

चले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |
दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||

सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |
माँ बोले जब  तोतली, होवे महा विनोद ||

कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||

दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |
बारह महिने  में चली, करके स्वयं प्रयास ||

हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |
शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||

दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को  तेज |
पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज || 

कौशल्या काकी हुई, काका भूप कहाँय |
सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाँय ||

एक  मास के बाद में, शान्ता रानी संग |
गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग || 

कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||

काकी काका के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||

अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||
प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
हैं रानी चम्पावती,  इक शरीर दो जान ||

हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||

पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
आनंदित माता पिता, प्यार में जाएँ डूब ||

शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||

राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
 अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||

रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||

नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||


नारी  बहना  बने जो, हो दूजी संतान
होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||


नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय  एहसास |
बच्चा पोसे गर्भ में,  काया महक सुबास ||

 कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||

फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |
भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||

शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||

कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||


जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |
गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृति हुई विलोम ||


माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |
भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||


माता समझाने लगी, कौला रही बताय |
यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||


गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |
शान्ता संग यूँ सुधरता, रूपा केर भविष्य |


दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |
 रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||


बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |
प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||



दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |
राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||
 
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माता लेव बुलाय ||

सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||

संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||

छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा ही था रमण, विनयशील व शिष्ट ||

रमण सुरक्षा में लगा, शान्ता के तुरन्त |
 रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||

सौजा रूपा बटुक का, हर पल राखे ध्यान |
रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||

राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||


एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||

 सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||

सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||

नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||

चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||

एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||

बिना योजना के जमी, वह अबला बलवीर |
हाथों में भाला उठा, सजा धनुष पर तीर ||

तीन घरी बीती मगर,  लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||

फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||

होते ही संकेत के,  देते धावा बोल |
घोर विषैले तीर से, गया बाघ झट डोल ||

भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||

शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||

सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||

 शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर || 

शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
 भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||

गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||

अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||

कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||

रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||

रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||

बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||

फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||

अनकही बातें--खर्राटे

अनकही बातें--खर्राटे
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रजनी की नीरवता में स्तब्ध मौन  सब
और नींद से बेसुध सी तुम, सोयी रहती  तब
तुम्हारे नथुनों से लय मय  तान निकलती
कैसे कह दूं कि तुम हो खर्राटे    भरती
दिल के कुछ अरमान पूर्ण जो ना हो पाते
वो रातों में है सपने बन कर के आते
उसी तरह  बातें जो दिन भर  ना कह पाती
तुम्हारे  खर्राटे बन कर  बाहर  आती
बातों का अम्बार दबा जो मन के अन्दर
मौका मिलते उमड़ उमड़ आता है बाहर

 'फास्ट ट्रेक 'से जल्दी बाहर आती बातें
साफ़ सुनाई ना देती, लगती खर्राटे
दिन  की सारी घुटन निकल बाहर आती है
मन होता है शांत,नींद गहरी आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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