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रविवार, 19 जनवरी 2025

बुढ़ापे की गाड़ी 

 उमर धीरे-धीरे ढली जा रही है 
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है 

चरम चूं,चरम चूं , कभी चरमराती 
चलती है रुक-रुक, कभी डगमगाती 
पुरानी है, पहिए भी ढीले पड़े हैं 
रास्ते में पत्थर भी बिखरे पड़े हैं
कभी दचके खाकर, संभल मुस्कुराकर
 पल-पल वह आगे बढ़ी जा रही है 
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है 

कहीं पर रुकावट ,कहीं पर थकावट
कभी आने लगती जब मंजिल की आहट
घुमड़ती है बदली मगर न बरसती 
मन के मृग की तृष्णा सदा ही तरसती 
कभी ख्वाब जन्नत की मुझको दिखा कर 
मेरी आस्थाएं छली जा रही है
 बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है

मदन मोहन बाहेती घोटू 
पर्दा 

कोई ने खिसका दिया इधर 
कोई ने खिसका दिया उधर 
लेकिन में अपनी पूर्ण उमर ,
बस रहा लटकता बीच अधर 
अवरुद्ध प्रकाश किया करता
 मै सबको पर्दे में रखता 
मैं हूं परदा , मै हूं परदा 

हर घर के खिड़की दरवाजे 
की शान द्विगुणित हूं करता
बाहर की गर्मी ठंडक का ,
घर में प्रवेश से वर्जित करता 
धूल कीटाणु और मच्छर 
घर अंदर आने से डरता 
मैं हूं परदा ,में हूं परदा 

जब मैं गोरी के मुख पड़ता
  तो मैं हूं घुंघट बन जाता 
उसके सुंदर मुख आभा को 
मै बुरी नजर से बचवाता 
मैं लाज शर्म की चेहरे को 
ढक कर रखवाली हूं करता 
मैं हूं परदा , मैं हूं परदा 

मदन मोहन बाहेती घोटू

चौरासी के फेरे में 

पल-पल करके जीवन बीता 
हर दिन सांझ सवेरे में 
तिर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

बादल जैसे आए बरस 
और बरस बरस कर चले गए 
गई जवानी आया बुढ़ापा 
उम्र के हाथों छले गए 
मर्णान्तक बीमारी आई ,
आई, आकर चली गई 
ढलते सूरज की आभा सी 
उम्र हमारी ढली गई 
यूं ही सारी उम्र गमा दी ,
फंस कर तेरे, मेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

चौरासीवां बरस लगा अब
आया परिवर्तन मन में 
भले बुरे कर्मों का चक्कर 
बहुत कर लिया जीवन में 
पग पग पर बाधाएं आई,
 विपदाओं से खेले हैं 
इतने खट्टे मीठे अनुभव
 हमने अब तक झेले हैं 
अब जाकर के आंख खुली है 
अब तक रहे अंधेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

 अब ना मोह बचा है मन में 
ना माया से प्यार रहा 
अपने ही कर रहे अपेक्षित 
नहीं प्रेम व्यवहार रहा 
अब ना तन में जोश बचा है 
पल-पल क्षरण हो रहा तन 
अब तो बस कर प्रभु का सिमरन 
काटेंगे अपना जीवन 
जब तक तेल बचा, उजियारा
 होगा रैन बसेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई
 चौरासी के फेरे में 

मदन मोहन बाहेती घोटू 

मैं


मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं,

 मुझको है संतोष इसी से 

सबकी अपनी सूरत,सीरत

 क्यों निज तुलना करूं किसी से


 ईश्वर ने कुछ सोच समझकर 

अपने हाथों मुझे गढ़ा है 

थोड़े सद्गुण ,थोड़े दुर्गुण

 भर कर मुझको किया बड़ा है 

अगर चाहता तो वह मुझको 

और निकृष्ट बना सकता था 

या चांदी का चम्मच मुंह में,

 रखकर कहीं जना सकता था 

लेकिन उसने मुझको सबसा 

साधारण इंसान बनाया 

इसीलिए अपनापन देकर 

सब ने मुझको गले लगाया 

वरना ऊंच-नीच चक्कर में,

 मिलजुल रहता नहीं किसी से 

मैं जो भी हूं जैसा भी हूं ,

मुझको है संतोष इसी से 


प्रभु ने इतनी बुद्धि दी है 

भले बुरे का ज्ञान मुझे है 

कौन दोस्त है कौन है दुश्मन 

इन सब का संज्ञान मुझे है 

आम आदमी को और मुझको 

नहीं बांटती कोई रेखा 

लोग प्यार से मुझसे मिलते

 करते नहीं कभी अनदेखा 

मैं भी जितना भी,हो सकता है

 सब लोगों में प्यार लुटाता 

सबकी इज्जत करता हूं मैं 

इसीलिए हूं इज्जत पाता 

कृपा प्रभु की, मैंने अब तक,

जीवन जिया, हंसी खुशी से 

मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं 

मुझको है संतोष इसी  से


मदन मोहन बाहेती घोटू

मंगलवार, 14 जनवरी 2025

उतरायणी पर्व

उतरायणी है पर्व हमारा,

समता को दर्शाता है।

कहीं मनाते लोहड़ी इस दिन,

कोई बिहू ‌मनाता है।

महास्नान गंगासागर में,

जो उतरायणी को करता।

जप,तप,दान और तर्पण कर,

मानस मन उज्जवल होता।

देवालय में लगते मेले,

तिल, गुड़ के पकवान बनाते।

इसी तरह हो मीठा जीवन,

आपस में सब मिलजुल गाते।

आटे में गुड़ मिला गूंथकर,

घुघुते और खजूर बनाते।

इन्हें पिरोकर माला में फिर,

बच्चे काले कौवा गाते।

त्यौहारों का देश हमारा,

सदा यहां खुशहाली है।

मिलजुल कर त्यौहार मनाते,

भारत की शान निराली है।



हेमलता सुयाल

   स॰अ॰

रा॰प्रा॰वि॰जयपुर खीमा

क्षेत्र-हल्दवानी

जिला-नैनीताल

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