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बुधवार, 6 अप्रैल 2022

बढ़ती महंगाई 

प्रवासी भारतवासी ,
जब विदेश से लौटकर 
वापस अपने घर आते हैं 
बढ़ी हुई महंगाई को
 अपने साथ ले आते हैं 
 
 जैसे मेरे देश का वड़ापाव 
 छोड़कर अपना गांव 
 जब गया विदेश ,
 तो लौटा नया रूप धर 
 वह बन गया था वड़ापाव से बर्गर 
 उसका नया हीरो वाला रूप,
  लोगों को सुहाया 
  दाम दस गुना हो गए ,
  फिर भी लोगों ने बड़े चाव से खाया 
  
  मेरे गांव के नाई चाचा की तेल मालिश ,
  जब विदेश गई 
  तो स्पा बन गई 
  नए रंग में सन गई
  बहुत महंगी हो गई 
  पर फैशन बन गई 
  
  दादी के हाथों के मैदे की सिवैयां
   आज भी बहुत याद आती हैं 
   जब से विदेश से लौटी है ,
   चाऊमीन कहलाती है 
    बड़ी मंहगी आती है
   
   और जब आलू का पराठा पहुंच गया विदेश
    देखकर उन्मुक्त परिवेश 
    दो परतों के बीच उसका दम घुटने लगा 
    और वह बाहर की और भगा 
    रोटी के ऊपर चढ़कर उसे आया मजा 
    और वह बन गया पिज़्ज़ा 
    विदेशी रंगत देख कर,
    लोगों में दीवानगी चढ़ गई 
    बस कीमत कई गुना बढ़ गई 
    
    कनखियों से ताक झांक कर के ,
    नैनो को लड़ाने वाला प्यार 
    विदेश में डेटिंग करके हो गया बेकरार 
    खुली छूट मिल गई कर लो पूरा दीदार 
    मगर खर्च होगया कई हजार
    
    विदेश जाकर बदले परिवेश में,
     गांव की चीजों पर आधुनिकता चढ़ा दी 
     पर मेरे देश की महंगाई बढ़ा दी

     मदन मोहन बाहेती घोटू 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

बुढ़ापा होता है कैसा

बुढ़ापा होता है कैसा 
बुढ़ापा होता है ऐसा 

अभी जोशे जवानी है 
चमक चेहरे पर पानी है 
मटकती चाल बलखाती
जुल्फ काली है लहराती 
उमर जब बढ़ती जाएगी 
लुनाई घटती जाएगी 
कोई जब आंटी बोलेगा 
तुम्हारा खून खोलेगा 
भुगतनी पड़ती जिल्लत है 
उमर की यह हकीकत है 
सफेदी सर पे आती है,
 उमर देती है संदेशा 
 बुढ़ापा होता है ऐसा 
 बुढ़ापा होता है कैसा 
 
तुम्हारी अपनी संताने 
जो चलती उंगली को थामें 
बड़ी होने लगेगी जब 
ध्यान तुम पर न देगी तब 
तुम्हारी कुछ न मानेगी 
सिर्फ अपनी ही तानेगी 
कहेगी तुम हो सठियाये
रिटायर होने को आए 
रमाओ राम में निज मन 
छोड़ दो काम का बंधन 
नियंत्रण उनका धंधे पर ,
और उनके हाथ है पैसा 
बुढ़ापा होता है ऐसा 
बुढ़ापा होता है कैसा 

बदन थोड़ा सा कुम्हलाता
चिड़चिड़ापन है आ जाता 
बहुत कम खाते पीते हैं 
दवाई खा कर जीते हैं 
मिठाई खा नहीं सकते 
बहुत परहेज है रखते 
गुजारे वक्त ना कटता 
बड़ी आ जाती नीरसता 
नहीं लगता कहीं भी मन 
खटकता है निकम्मापन
न घर के घाट के रहते ,
हाल कुछ होता है ऐसा
 बुढ़ापा होता है कैसा 
 बुढ़ापा होता है ऐसा

मदन मोहन बाहेती घोटू 

बुधवार, 30 मार्च 2022

जवानी मांगता हूं मैं
1
गई जो बीत,फिर से वह,कहानी मांगता हूं मैं कबाड़ी हूं ,सदा चीजें, पुरानी मांगता हूं मैं 
मेरी फरमाइशें देखो ,ये मेरा शौक तो देखो 
बुढ़ापे में ,गई फिर से ,जवानी मांगता हूं मैं 
2
मुझे दे दो जवानी बस, उसे मैं धार दे दूंगा 
पुरानी चीज को चमका, नई चमकार दे दूंगा हसीनों का जरा सी देर का जो साथ मिल जाए कयामत जाऊंगा मैं ,ढेर सारा प्यार दे दूंगा
3
सुना है कि पुराने चावलों में स्वाद ज्यादा है 
पुरानी चीज होती एंटीक है दाम ज्यादा है 
नई नौदिन पुरानी सौ दिनों तक टिकती है लेकिन 
मेरा नौ दिन सही, फिरसे जवानी का इरादा है
4
भले थोड़ी सही,फिर से जवानी मुझको मिल जाए 
येमुरझाया चमन मेराभले कुछ दिन ही खिल जाए
हसीनों से करूं फिर से मोहब्बत ,आरजू दिल की कि इन बुझते चिरागों में ,रोशनी फिर से मुस्काए
5
नया कुछ स्वाद मैं ले लूं ,नया उन्माद मैं झेलूं तमन्ना है चमन की हर कली के साथ मैं खेलूं 
खुदा इतनी सी हसरत है ,तू लौटा दे पुराने दिन, भले कुछ दिन सही, लेकिन जवानी के मजे ले लूं
6
जवानी फिर से जीने को मेरा दिल तो है आमादा
भले हिम्मत नहीं बाकी, न तन में जोश है ज्यादा लगा चस्का पुराना है ,नहीं छूटेगी यह आदत , हो कितना बूढ़ा भी बंदर, गुलाटी मारता ज्यादा

मदन मोहन बाहेती घोटू

मंगलवार, 29 मार्च 2022

मां मां ही होती है

 नौ महीने तक तुम्हें गर्भ में अपने ढोती है 
 मां तो मां ही होती है 
 जो तुमको गोदी में लेकर अपने आंचल में
 छुपा तुम्हे, छाती से अपना दूध पिलाती है 
 तुम कितनी ही बार गिरो, वह तुम्हे उठाती है
 पकड़ तुम्हारी उंगली चलना तुम्हें सिखाती है 
 तुम्हें पालने दुनिया भर के कष्ट झेलती है ,
 खुद भूखी रहकर भी पहले तुम्हें खिलाती है अक्षर ज्ञान कराती है ,भाषा सिखलाती है कार्यकलाप सभी जीवन के तुम्हें सिखाती है 
 तुम्हें चैन से नींद आ सके, कुछ तकलीफ न हो तुम्हें सुलाती सूखे में, खुद गीली सोती है 
 वह तुम्हारी जननी है , मां , मां ही होती है
 
 तुम्हारे पोषण को अपने सीने हल चलवा ,
 एक दाने के कई हजारों दाने उपजाती 
 तुम्हें मिल सके ठंडी ठंडी हवा इसलिए वो, कितने वन उपवन अपनी छाती पर लहराती 
 वो कुदाल की चोटें सह सह कुवा खुदवाती,
 ताकि शीतल और शुद्ध जल तुमको मिल पाए
 अपनी माटी दे, तुम्हारा घर बनवाती है,
 ताकि चैन से रहो तुम्हे कुछ मुश्किल ना आए
 कई रसीले फल तुमको खाने को मिलते हैं,
 एक बीज फल का अपनी छाती में बोती है
  वो धरती मां ,मां ही है, मां मां ही होती है 
  
जो खुद सूखा तृण खाकर भी दूध पिलाती है
 वह भी पूजनीय है हमको ,गैया माता है 
 करती है हमको प्रदान धन-धान्य और वैभव अति प्रिय सबको लगती है वो लक्ष्मी माता है 
 जो हम को शक्ति देती है और रक्षा करती है, वंदनीय हम सब की है वह दुर्गा माता है 
 वीणा वादिनी ,सुर प्रदायिनी, सरस्वती माता 
 है संगीत सुरसरी और बुद्धि की दाता है 
 देना ही जिसकी प्रवृत्ति, वो माता कहलाती, संतानों के जीवन में जो खुशी संजोती है 
 लक्ष्मी सरस्वती या दुर्गा ,मां तो मां होती है

मदन मोहन बाहेती घोटू 
 हवा हवाई 
 
हवाओं से मेरा रिश्ता बहुत ज्यादा पुराना है 
जन्म से ही शुरु मेरी सांसो का आना जाना है

जमाने की हवा ऐसी लगी थी मुझको यौवन में 
हवा में उड़ता रहता था जब तलक जोश था तनमें
 
नजर उनसे जो टकराती मिलन की बात थी आती 
गति सांसों की बढ़ जाती धड़कन तेज हो जाती

 हुई शादी, हवा निकली, गृहस्थी बोझ था सर पर 
हवा में उड़ न पाते थे, गए थे कट, हमारे पर 
 
जिंदगी में कई तूफान, आए और ठहराये
हवाओं से मेरे रिश्ते ,तभी से और गहराये

बुढ़ापे में हवा बिगड़ी, जिंदगी हो गई पंचर 
गुजारा वक्त करते हैं अब ठंडी आहें भर भर कर 

 जिंदगी भर की ये यारी, हवा से जिस दिन टूटेगी 
धड़कने जाएंगी थम, चेतनायें तन की रूठेंगी
 
हवाई थे किले जितने,हो गए ध्वंस, सबके सब
विलीन होकर हवा में ही, हमारा अंत होगा अब 

मदन मोहन बाहेती घोटू

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