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बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

कोई मुझे कहे जो बूढा 


कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 
बाकी कोई कुछ भी कह दे,वो सब चलता है 

धुंधलाइ  आँखों ने आवारागर्दी  ना है छोड़ी 
देख हुस्न को उसके पीछे,भगती फिरे निगोड़ी 
मेरा मोम हृदय ,थोड़ी सी , गर्मी जब पाता  है  
रोको लाख ,नहीं रुकता है ,पिघल पिघल जाता है 
तन की सिगड़ी,मन का चूल्हा ,तो अब भी जलता है 
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 

आँखों आगे ,छा जाती है ,कितनी यादें बिछड़ी 
स्वाद लगा मुख बिरयानी का ,खानी पड़ती खिचड़ी 
वो यौवन के ,मतवाले दिन ,फुर्र हो गए कबके 
पाचनशक्ती क्षीण ,लार पर देख जलेबी टपके 
मुश्किल से पर ,मन मसोस कर,रह जाना पड़ता है 
कोई मुझे ,कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है  

ढीला तन का पुर्जा पुर्जा ,घुटनो में पीड़ा है 
उछल कूद करता है फिर भी ,मन का यह कीड़ा है 
लाख करो कोशिश कहीं भी दाल नहीं गलती है 
कोई सुंदरी ,अंकल बोले ,तो मुझको खलती है 
आत्मनियंत्रण ,मन खो देता ,बड़ा मचलता है 
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 हौंसले -माँ के 

भले उम्र ने अपना असर दिखाया है 
जीर्ण और कमजोर हो गयी काया है 
श्वेत हुए सब केश ,बदन है  झुर्राया 
आँखें धुंधली धुंधली,चेहरा मुरझाया 
बिना सहारा लिए ,भले ना चल पाती 
मुश्किल से ही आधी रोटी ,बस खाती 
और पाचनशक्ति भी अब कुछ मंद है 
मगर हौंसले ,माँ के बहुत बुलंद  है 

कमजोरी के कारण थोड़ी टूटी  है 
चुस्ती फुर्ती ,उसके तन से रूठी है 
हालांकि कुछ करने में मुश्किल पड़ती 
काम कोई भी हो ,करने आगे बढ़ती 
ऊंचा बोल न पाती,ऊंचा सुनती है 
लेटी लेटी ,क्या क्या सपने बुनती है 
कोई आता मिलता उसे आनंद है 
मगर हौंसले माँ के बहुत बुलंद है 

हाथ पैर में ,बची न ज्यादा शक्ति है 
मोह माया से ,उसको हुई विरक्ति है 
तन में हिम्मत नहीं मगर हिम्मत मन में 
कई मुश्किलें ,हंस झेली है जीवन में 
अब भी किन्तु विचारों में अति दृढ़ता है 
उसको कुछ समझाना मुश्किल पड़ता है 
खरी खरी बातें ही उसे पसंद  है 
मगर हौंसले ,माँ के बहुत बुलंद है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

मुझे इन्द्रासन नहीं चाहिए 

जो अपने किसी भी  प्रतिद्वंदी को उभरता देख कर 
उसके चरित्रहनन के लिए,सुन्दर स्त्रियां  भेज कर 
उसका ध्यान  विचलित कर ,उसे पथ भ्रष्ट करे 
अपनी कुर्सी बचाने को ,उसकी तपस्या नष्ट करे 
अगर  इंद्र बनने पर ,ये सब करना पड़ता है  
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

अगर उसके  भक्त  ,किसी के प्रभाव में आकर
रोक दे उसकी पूजा तो इसे अपना अपमान समझ कर 
रुष्ट होकर ,क्रोध में उनकी बस्ती में ला दे जल प्रलय 
उन्हें फिर अपनी शरण में लाने को दिखलाये  भय 
अगर इंद्र बनने पर ,ये सब करना पड़ता है ,
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

जो सोमरस पीता रहे और  अप्सराओं संग मौज मनाये 
पर किसी पराई स्त्री की सुंदरता पर इतना आसक्त हो जाए 
कि अपनी काम वासना मिटाये ,उसके पति का रूप धर 
उसके सतीत्व का हरण  करे ,उसके साथ व्यभिचार  कर 
अगर इंद्र ये सब करतूतें करता रहता है 
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

मैं किसी बृजवासी को ,जल के प्रकोप से डराना नहीं चाहता 
मैं किसी विश्वामित्र का ,तप भंग  करवाना  नहीं चाहता 
मैं  किसी अहिल्या को ,पत्थर की शिला बनवाना नहीं चाहता 
इसलिए मैं जो भी हूँ ,जैसा भी हूँ ,खुश हूँ ,
मुझे इन्द्रासन नहीं चाहिए 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
 
निर्मल आनंद 

मेरे मन में जो उलझे थे ,
छंद सभी स्वछन्द होगये 
दुःख पीड़ा से मुक्त हो गए ,
एक निर्मल आनंद हो गए 
कवितायेँ सब ,सरिताएं बन ,
बही ,हुई विलीन सागर में 
लगा उमर का ताप ,भाव सब ,
 बादल बने ,उड़े  अंबर में 
ऐसी दुनियादारी बरसी ,
चुरा सभी जज्बात ले गयी 
जिन्हे समय की हवा बहा कर ,
इत उत  अपने साथ ले गयी 
अब तो बस, मैं हूँ और मेरी ,
काया दोनों मौन पड़े है 
जहाँ वृक्ष ,पंछी कलरव था ,
कांक्रीट के भवन खड़े है 
मैं खुद बड़ा अचंभित सा हूँ ,
इतना क्यूँ बदलाव आ गया 
मेरे  हँसते गाते मन में ,
क्यों बैरागी भाव छा  गया 
मै तटस्थ हूँ ,लहरें आती, 
जाती मुझको फर्क न पड़ता 
इस उच्श्रृंखल चंचल मन में ,
क्यों आ छायी है नीरवता 
मोह माया से हुई विरक्ति ,
हुआ कभी ना पहले ऐसा 
क्या यह आने वाली कोई ,
परम शांति का है संदेशा 
बस अब तो ये जी करता है ,
अंतरिक्ष में ,मैं उड़ जाऊं 
मिले आत्मा ,परमात्मा से ,
परमशक्ति से मैं जुड़ जाऊं 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

भटकाव 

जिधर ले गयी हवा 
बस उसी तरफ बहा 
मैं तो बस बादल बन ,
यूं ही भटकता रहा
  
न तो अंबर में ही रहा 
न ही धरती पर बहा 
मैं तो बस बीच में ही ,
यूं ही लटकता रहा 

जहाँ मिली शीतलता 
बरसा रिमझिम करता 
सौंधा  सा , माटी में,
मिल कर महकता रहा 

यहाँ वहां ,कहाँ कहाँ 
सुख दुःख ,सभी सहा 
कभी आस ,कभी त्रास 
बन कर खटकता रहा 

मैं तो बस जीवन में 
यूं ही भटकता रहा 

घोटू 

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