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रविवार, 27 मार्च 2016

भिक्षामदेही

       भिक्षामदेही

         तुम कोमलांगिनि ,मृदुदेही
         है हृदय रोग ,  मै  मधुमेही
          मै प्यार मांगता हूँ तुमसे ,
           भिक्षामदेही ,भिक्षामदेही
दीवानों का दिल लूट लूट ,
तुमने अपने आकर्षण से
निज कंचन कोषों में बांधा  ,
तुमने कंचुकी के बंधन से
क्यों मुझको वंचित रखती हो ,
अपने  संचित यौवन धन से
           मै प्यार ढूढ़ता हूँ तुम में ,
           है नज़र तुम्हारी  सन्देही
          भिक्षामदेही ,भिक्षामदेही
मै नहीं माँगता हूँ कंचन ,
मुझको बस,  दे दो आलिंगन
मधु भरे मधुर इन ओष्ठों से,
दे दो एक मीठा सा चुंबन
मेरी अवरुद्ध शिराओं में ,
हो पुनः रक्त का संचालन
          ना होगा पथ्य,अपथ्य ,तृप्त ,
          होगा पागल ,प्रेमी ,स्नेही
           भिक्षामदेही ,भिक्षामदेही

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 23 मार्च 2016

गोबर की अहमियत

        गोबर की अहमियत

हमारी जिंदगी में कदर कितनी गाय भेंसों की ,
एक छोटे से उदाहरण से ,समझ सब आप सकते है
करे इंसान विष्टा तो,बहा  दी जाती है फ्लश में,
करे गर गाय गोबर तो,हम उपले थाप रखते है
पवित्तर मानते इतना ,लगाते चौका गोबर का ,
हवन में काम में लाते ,जलाते आग चूल्हे की,
उन्ही के अंगारों पर रोटियां हम सेक खाते है ,
बचे जो राख ,उससे भी ,हम बरतन साफ़ करते है

घोटू

न रंग होली के फागुन में

       न रंग होली के फागुन में

लड़कियां देख कर 'घोटू' बहुत फिसले लड़कपन में
हुई शादी, हसरतें सब, रह गई ,मन की ही मन में
किसी को ताक ना सकते,कहीं हम झाँक ना सकते ,
बाँध कर रखती है बीबी, हमे अब  अपने   दामन में 
हमारी हरकतों पर अब,दफा एक सौ चुम्मालिस है,
न आँखे चार कर सकते किसी से ,हम है बंधन में
गर्म मिज़ाज़ है बीबी, हर एक मौसम में तपती लू,
न रिमझिम होती सावन में ,न रंग होली के फागुन में 
काटते रहते है चक्कर ,उन्ही के आगे पीछे  हम,
बन गए बैल कोल्हू के ,बचा ही क्या है  जीवन में

घोटू

आशिक़ी और होली

       आशिक़ी और होली

जलवा दिखा के हुस्न का ,हमको थी जलाती ,
   ये जान कर भी  रूप पर ,उनके हम  फ़िदा  है
हमको न घास डालती थी जानबूझ कर ,
      हम समझे हसीनो की ये भी कोई अदा  है
देखा जो किसी और को बाहों में हमारी ,
      मारे जलन के ,दिलरुबा ,वो खाक हो गयी
प्रहलाद सलामत रहा,होलिका जल गयी,
       ये तो पुरानी,  होली वाली ,बात हो गयी

घोटू  

होली की जलन

        होली की जलन
                  १
सुंदर कन्या कुंवारी ,जिसका रूप अनूप
ज्यों गुलाब का फूल हो,या सूरज की धूप
या सूरज की धूप ,हमारे  मन को  भायी 
लाख करी कोशिश,मगर वो हाथ  न आयी
हमे जलाती रोज ,दिखा कर नूतन जलवा
ललचाता था बहुत ,हुस्न का उनके हलवा
                   २
हमने कुछ ऐसा किया ,रहगयी मलती हाथ
देखा हमको दूसरी , हुस्न परी  के  साथ
हुस्न परी के साथ ,कुढ़ी कुछ ऐसी मन में
जल कर हो गई खाक ,आग यूं लगी बदन में
'घोटू'  ये तो वही  पुरानी बात  हो गयी
जला नहीं प्रहलाद ,होलिका ख़ाक हो गयी
                     ३
जानबूझ कर जो हमे ,न थी डालती घास
आगबबूला सी खिंची ,आई हमारे  पास
आई हमारे पास ,तमक से  लाल लाल थी
'घोटू'खुश थे  ,सफल हमारी  हुई चाल थी
लगा प्रेम से गले, प्यार कर  उन्हें मनाया
अंग  अंग  उनके ,होली का रंग   लगाया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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