वह कवि है,
हाहाकार है,
डरते हैं बच्चे,
बस नाम से उसके ।
सोता नहीं जब रात में,
कहती उसकी माँ,
सोता है या बुलाऊँ,
जगा होगा वो कवि,
बच्चा खुद ब खुद,
सो जाता है यूँ ही ।
बुजुर्ग भी अकसर,
कतराते हैं उससे,
कतराना क्या है जी,
घबराते हैं उससे,
डरते हैं सोचकर,
छोड़ न दे कहीं,
कविता रुपी बम कोई ।
हमउम्र भी अकसर,
मिलते नहीं दिल से,
काम का बहाना कर,
खिसकते ही जाते ।
हाफिज सईद से ज्यादा,
इससे सिहरते जाते ।
पर उसको नहीं है गम,
आखिर वो कवि है,
जिह्वा में सदैव,
कविता है बसती,
अधर जब फड़फड़ाये,
कविता है झड़ती ।
आतुर रहता सदैव,
सुनाने अपनी रचना,
पकड़ पकड़ कर अकसर,
वो सुनाता भी है ।
बीच चौपाल में अकसर,
बिना चेतावनी दिए ही,
जब शुरु कर देता है,
काव्य पाठ अपना ,
बच बचाकर लोग,
तब फूटने हैं लगते ।
गिरते-पड़ते इधर उधर,
सरकने हैं लगते ।
पर अब कला उसकी,
पहचान में है आई,
अकसर लोग उसको,
अब बुलाते भी हैं,
भीड़ हो या जाम हो,
या कैसा भी रगड़ा हो,
तीतर बितर करने को,
उसकी सुनवाते भी हैं ।
बच्चे को सुलाना हो,
या भीड़ को भगाना हो,
हर काम में उसको,
याद करते हैं लोग ।
वो बस सुनाता है,
दिल की दिल में गाता है,
कविताएँ ही बनाता है,
जिस किसी भी रुप में,
भावनाएँ बहाता है,
आखिर वो कवि है ।
वो एक कवि है ।
(कृपया हास्य रूप में ही लें)
-प्रदीप कुमार साहनी