जिनके गलत सुलूक रहे हैं।
शंख वही अब फूक रहे हैं।
भरा गन्दगी से अन्तर्मन,
वो औरों पर थूक रहे हैं।
कोयल तो आश्चर्यचकित है,
सारे कौवे कूक रहे हैं।
राम बने फिरते हैं अब वो,
कल तक जो शम्बूक रहे हैं।
निकले हैं सागर मन्थन को,
कभी कूप मन्डूक रहे हैं।
काटे गये अँगूठे फिर भी,
कहॉं निशाने चूक रहे हैं।
प्रतापगढ़ ।शंख वही अब फूक रहे हैं।
भरा गन्दगी से अन्तर्मन,
वो औरों पर थूक रहे हैं।
कोयल तो आश्चर्यचकित है,
सारे कौवे कूक रहे हैं।
राम बने फिरते हैं अब वो,
कल तक जो शम्बूक रहे हैं।
निकले हैं सागर मन्थन को,
कभी कूप मन्डूक रहे हैं।
काटे गये अँगूठे फिर भी,
कहॉं निशाने चूक रहे हैं।