कबूतर को दाना
खिलाते जो हम हैं कबूतर को जाना
एक दिन हमारे दिल ने यह जाना
हम जो ये सारा करम कर रहे हैं
जिसे सोचते हम धरम कर रहे हैं
धर्म ऐसा कैसा कमा हम रहे हैं
सभी को निठल्ला बना हम रहे हैं
जिन्हें पेट भरने ,कमाने को दाना
सवेरे को उड़कर के पड़ता था जाना
उन्हें पास मिल जाता है ढेरों दाना
मुटिया रहे जिसको खा वो रोजाना
खिलाने का दाना,करम आपका यह
धर्म का नहीं है, करम पाप का यह
हुए जा रहे हैं आलसी सब कबूतर
फैला रहे गंदगी घर-घर जाकर
मानो न मानो मगर सच यही है
इनकी नस्ल आलसी हो रही है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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