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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

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शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

सर्दी से निवेदन 

अभी ना जाओ छोड़ कर 


सर्दी में ऐलान कर दिया मैं जाती हूं 

गर्मी बोली खुश हो जाओ मैं आती हूं 

इतनी जल्दी लगा बदलने मौसम करवट 

छोटी होने लगी प्रेम की रातें नटखट 

हमने बोला सर्दी रानी क्या है जल्दी

अभी-अभी तो तुम आई थी, झट से चल दी

 उठा ना पाए हम,तुम्हारा मजा नहीं 

अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं


 हुआ रुवासा कंबल रोने लगी रजाई 

इतना लंबा इंतजार करवा तुम आई 

रहे साल भर हम बक्से में यूं ही सिमट कर थोड़ा सुख पाया था तुमसे लिपट चिपट कर 

तुम आई तो प्यार लुटाया सब पर सच्चा 

कुछ दिन और अगर रुक जाती होता अच्छा 

 अभी ठीक से हृदय हमारा मिला नहीं 

अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं 


कहा धूप में मेरी तपन सभी को चुभती 

बस सर्दी में ही मैं सबको अच्छी लगती 

तुम जाओगी ,लोग मुझे भी ना पूछेंगे 

कोशिश होगी मुझे हटकर दूर भगेंगे 

हम तुम तो बहने हैं तुम्हें वास्ता रब का 

थोड़ी दिन तो प्यार मुझे पाने दो सबका 

मेरे दुख  की चिंता तुमको जरा नहीं 

अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं


तभी गिड़गिड़ा बोल उठा गाजर का हलवा दिखता सर्दी में ही सबको मेरा जलवा 

हुई रूवासी गजक ,रेवड़ी बोली रो कर 

तुम जाती तो लोग भूलते हमको अक्सर 

तुम रुक जाती तो ठंडा करती मौसम को 

कुछ दिन तक तो स्वाद लुटाने देती हमको 

जिद छोड़ो तुम, ख्याल हमारा जरा नहीं 

अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं


मदन मोहन बाहेती घोटू

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

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सोमवार, 20 जनवरी 2025

सांत्वना 

चार दिनों की रही चांदनी, सब आए मिल चले गए 
इतना हम पर प्यार लुटाया,हम विव्हल हो छले गए 

तुम्हे पता हम वृद्ध किस तरह अपना जीवन काट रहे 
वृद्धावस्था के सब सुख दुख,आपस में है बांट रहे 
अपनी खुशियों में हंस लेते , अपने ग़म में रो लेते 
बात फोन पर हो जाती है तो पल भर खुश हो लेते 
टूट गए सब के सब सपने ,मन में जो थे पले गए 
चार दिनों तक रही चांदनी सब आए मिल चले गए 

सब मिल जुल कर रहते होती खुशियों की बरसात सदा 
एकाकी जीवन के सुख दुख, क्या होते, है हमें पता
 पर धन अर्चन की मजबूरी अपनों को बिछड़ाती है 
जुदा एक दूजे से करती ,बहुत हमें तड़फाती है यही सांत्वना ,कभी-कभी मिल ,जीवन के दिन भले गए 
चार दिनों की रही चांदनी सब आए मिल चले गए
मदन मोहन बाहेती घोटू 
सुख दुख 

बहुत हसीं यह जीवन यदि सुख से जियो
दुख के विष को त्याग शान्ति अमृत पियो 
अपने दिल को जला दुखी क्यों करते हो रोज-रोज तुम यूं ही घुट घुट मरते हो

तुमको अपने मन के माफिक जीना है
 निज पसंद का रहना ,खाना ,पीना है  
वरना लोग नहीं सुख से जीने देंगे 
बार बार वो तुम्हे परेशाँ कर देंगे

बहुत मिलेगा सुनने को तुम्हें उलहाने में
कड़वी खट्टी गंदी बातें ताने में 
कसर न होगी खोटी खरी सुनाने में
सुख वह सदा पाएंगे तुम्हें सताने में 

उनकी बातों पर जो ध्यान अगर दोगे 
अपने मन का अमन चैन सब खो दोगे 
इसीलिए मत इन बातों पर रोष करो 
जैसे भी हो सुखी रहो, संतोष करो 

इन लोगों से सदा दूरियां रखो बना 
उनकी बातों को तुम कर दो बिना सुना 
कैसे रहना सुखी तुम्हारे हाथ में है 
कैसे रहना दुखी तुम्हारे हाथ में है 

तुम जैसा चाहो वैसे जी सकते हो
नीलकंठ बन सभी गरल पी सकते हो 
सदा दुखी रहने के कई बहाने हैं 
लेकिन पहले ये सब तुम्हें भुलाने हैं 

कैसे रहना सुखी सीख लो जीवन में 
बहुत शांति और सुख पाओगे तुम मन में 
नहीं किसी से बैर भाव या क्रोध करो 
प्रतिस्पर्धा से दूर रहो ,संतोष करो 

ना ऊधो से लेना ,देना माधव को 
बोलो मीठे बोल, प्रेम बांटो सबको 
बहुत सरल है दुख में परेशान होना 
फूटी किस्मत ,बार-बार रोना-धोना 

एक बार जब मुखड़ा मोड़ोगे दुख से
भर जाएगा पूरा ही जीवन सुख से 
सुख दुख तो जीवन में आते जाते हैं 
बहुत सुखी वो ,जो हरदम मुस्काते हैं

मदन मोहन बाहेती घोटू 

मेरे घर का मौसम

ना तुझमें खराबी, ना मुझमें खराबी 
 मेरे घर का मौसम ,गुलाबी गुलाबी 

हम पर खुदा की ,है इतनी इनायत 
किसी को किसी से न शिकवा शिकायत 
मिला जो भी कुछ है, संतुष्ट हम हैं 
खुशी ही खुशी है ,नहीं कोई गम है 
किसी से कोई भी अपेक्षा नहीं है 
लिखा जो भी किस्मत में पाया वही है
 नहीं मन के अंदर ,लालच जरा भी 
मेरे घर का मौसम, गुलाबी गुलाबी 

सीमित है साधन, पर करते गुजारा 
भरा सादगी से , है जीवन हमारा 
नहीं चाह कोई तो चिंता नहीं है 
सभी को सभी कुछ तो मिलता नहीं है
मिलकर के रहते हैं, हम सीधे-सादे 
कभी राम रटते ,कभी राधे राधे 
सत्कर्म ही है ,सफलता की चाबी 
मेरे घर का मौसम गुलाबी गुलाबी

मदन मोहन बाहेती घोटू 

रविवार, 19 जनवरी 2025

बुढ़ापे की गाड़ी 

 उमर धीरे-धीरे ढली जा रही है 
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है 

चरम चूं,चरम चूं , कभी चरमराती 
चलती है रुक-रुक, कभी डगमगाती 
पुरानी है, पहिए भी ढीले पड़े हैं 
रास्ते में पत्थर भी बिखरे पड़े हैं
कभी दचके खाकर, संभल मुस्कुराकर
 पल-पल वह आगे बढ़ी जा रही है 
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है 

कहीं पर रुकावट ,कहीं पर थकावट
कभी आने लगती जब मंजिल की आहट
घुमड़ती है बदली मगर न बरसती 
मन के मृग की तृष्णा सदा ही तरसती 
कभी ख्वाब जन्नत की मुझको दिखा कर 
मेरी आस्थाएं छली जा रही है
 बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है

मदन मोहन बाहेती घोटू 
पर्दा 

कोई ने खिसका दिया इधर 
कोई ने खिसका दिया उधर 
लेकिन में अपनी पूर्ण उमर ,
बस रहा लटकता बीच अधर 
अवरुद्ध प्रकाश किया करता
 मै सबको पर्दे में रखता 
मैं हूं परदा , मै हूं परदा 

हर घर के खिड़की दरवाजे 
की शान द्विगुणित हूं करता
बाहर की गर्मी ठंडक का ,
घर में प्रवेश से वर्जित करता 
धूल कीटाणु और मच्छर 
घर अंदर आने से डरता 
मैं हूं परदा ,में हूं परदा 

जब मैं गोरी के मुख पड़ता
  तो मैं हूं घुंघट बन जाता 
उसके सुंदर मुख आभा को 
मै बुरी नजर से बचवाता 
मैं लाज शर्म की चेहरे को 
ढक कर रखवाली हूं करता 
मैं हूं परदा , मैं हूं परदा 

मदन मोहन बाहेती घोटू

चौरासी के फेरे में 

पल-पल करके जीवन बीता 
हर दिन सांझ सवेरे में 
तिर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

बादल जैसे आए बरस 
और बरस बरस कर चले गए 
गई जवानी आया बुढ़ापा 
उम्र के हाथों छले गए 
मर्णान्तक बीमारी आई ,
आई, आकर चली गई 
ढलते सूरज की आभा सी 
उम्र हमारी ढली गई 
यूं ही सारी उम्र गमा दी ,
फंस कर तेरे, मेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

चौरासीवां बरस लगा अब
आया परिवर्तन मन में 
भले बुरे कर्मों का चक्कर 
बहुत कर लिया जीवन में 
पग पग पर बाधाएं आई,
 विपदाओं से खेले हैं 
इतने खट्टे मीठे अनुभव
 हमने अब तक झेले हैं 
अब जाकर के आंख खुली है 
अब तक रहे अंधेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

 अब ना मोह बचा है मन में 
ना माया से प्यार रहा 
अपने ही कर रहे अपेक्षित 
नहीं प्रेम व्यवहार रहा 
अब ना तन में जोश बचा है 
पल-पल क्षरण हो रहा तन 
अब तो बस कर प्रभु का सिमरन 
काटेंगे अपना जीवन 
जब तक तेल बचा, उजियारा
 होगा रैन बसेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई
 चौरासी के फेरे में 

मदन मोहन बाहेती घोटू 

मैं


मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं,

 मुझको है संतोष इसी से 

सबकी अपनी सूरत,सीरत

 क्यों निज तुलना करूं किसी से


 ईश्वर ने कुछ सोच समझकर 

अपने हाथों मुझे गढ़ा है 

थोड़े सद्गुण ,थोड़े दुर्गुण

 भर कर मुझको किया बड़ा है 

अगर चाहता तो वह मुझको 

और निकृष्ट बना सकता था 

या चांदी का चम्मच मुंह में,

 रखकर कहीं जना सकता था 

लेकिन उसने मुझको सबसा 

साधारण इंसान बनाया 

इसीलिए अपनापन देकर 

सब ने मुझको गले लगाया 

वरना ऊंच-नीच चक्कर में,

 मिलजुल रहता नहीं किसी से 

मैं जो भी हूं जैसा भी हूं ,

मुझको है संतोष इसी से 


प्रभु ने इतनी बुद्धि दी है 

भले बुरे का ज्ञान मुझे है 

कौन दोस्त है कौन है दुश्मन 

इन सब का संज्ञान मुझे है 

आम आदमी को और मुझको 

नहीं बांटती कोई रेखा 

लोग प्यार से मुझसे मिलते

 करते नहीं कभी अनदेखा 

मैं भी जितना भी,हो सकता है

 सब लोगों में प्यार लुटाता 

सबकी इज्जत करता हूं मैं 

इसीलिए हूं इज्जत पाता 

कृपा प्रभु की, मैंने अब तक,

जीवन जिया, हंसी खुशी से 

मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं 

मुझको है संतोष इसी  से


मदन मोहन बाहेती घोटू

मंगलवार, 14 जनवरी 2025

उतरायणी पर्व

उतरायणी है पर्व हमारा,

समता को दर्शाता है।

कहीं मनाते लोहड़ी इस दिन,

कोई बिहू ‌मनाता है।

महास्नान गंगासागर में,

जो उतरायणी को करता।

जप,तप,दान और तर्पण कर,

मानस मन उज्जवल होता।

देवालय में लगते मेले,

तिल, गुड़ के पकवान बनाते।

इसी तरह हो मीठा जीवन,

आपस में सब मिलजुल गाते।

आटे में गुड़ मिला गूंथकर,

घुघुते और खजूर बनाते।

इन्हें पिरोकर माला में फिर,

बच्चे काले कौवा गाते।

त्यौहारों का देश हमारा,

सदा यहां खुशहाली है।

मिलजुल कर त्यौहार मनाते,

भारत की शान निराली है।



हेमलता सुयाल

   स॰अ॰

रा॰प्रा॰वि॰जयपुर खीमा

क्षेत्र-हल्दवानी

जिला-नैनीताल

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

मेहमान का सत्कार

मेरे एक मित्र ने बात चीत में यह बताया कि वह किसी रिश्तेदार  के घर ,रात्रि विश्राम के लिए गये थे।

शेष उनके अनुभव कुछ ऐसे थे। 


।।।।।मेहमान का सत्कार।।। 


बात चीत होगी जी भरकर। 

पहुंचा था मैं यही सोचकर। 

कुशल क्षेम जल पान हुआ। 

भोजन का निर्माण हुआ। 


बैठक कक्ष में खुल गया टी0वी0।

साथ-साथ बैठ गये तब हम भी।

सब के हाथ तब फोन आ गया। 

टी0वी0 का आभाष चला गया। 


सब टप-टप करने लगे फोन पर। 

किसकी किसको सुध वहां पर? 

व्यक्ति पांच पर सभी अकेले। 

थे गुरु को हाथ उठाये चेले।


सब दुनिया से बेखबर वे। 

भ्रांति लोक में पसर गये वे। 

मन ही मन वे कभी मुस्कराते। 

कभी मुख भाव कसैला लाते। 


फिर मैंने भी फोन उठाया। 

भ्रांति लोक में कदम बढाया। 

पल ,मिनट,घंटे बीत गये। 

यहां किसी को सुध नहीं रे। 


तभी किसी का फोन बज उठा। 

अनचाहे वह कान में पहुंचा। 

बात हुई कुछ झुंझलाहट में। 

नजर गयी दीवाल घडी़ में। 


रात्रि के दस बज गये थे। 

शीतल सब पकवान पेड़ थे।  

इतनी जल्दी दस बज गये। 

व्यन्जन सारे गर्म किये गये


खाना खाया फिर सो गये। 

सुबह समय से खडे हो गये। 

फिर मैं अपने घर आ गया। 

सत्कार मेरे ह्रदय छा गया। 




।।।विजय प्रकाश रतूडी़।।।

शनिवार, 4 जनवरी 2025

मेरे महबूब न मांग 

मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

बड़े जलते हुए अंगारे थे हम जवानी में 
लगा हम आग दिया करते ठंडे पानी में
 नहीं कुछ रखा हैअब बातें इन पुरानी में

 ऐसी जीवन में बुढ़ापे में अड़ा दी है टांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

गए वह दिन जब मियां फाख्ता मारा करते आती जाती हुई लड़कियों को ताड़ा करते 
अब तो जो पास में है उससे ही गुजारा करते

पड़े ढीले ,मगर मर्दानगी का करते स्वांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

हर एक बॉल पर हम मार देते थे छक्का  
हमारा जीतना हर खेल में होता पक्का
मगर इस बुढापे ने हमे कहीं का ना रक्खा 

जरा सी दूरी तक भी अब न लगा सकते 
छलांग 
मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

हमारे साथ नहीं सबके साथ यह होता 
अपनी कमजोरियों से करना पड़ता समझौता 
आदमी अपनी सारी चुस्ती फुर्ती है खोता 

हरकतें करने लगता बुढ़ापे में ऊट पटांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

मदन मोहन बाहेती घोटू

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