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गुरुवार, 6 सितंबर 2018


              अलग अलग मापदंड 

सत्तासीनों का दम्भ ,रौब ,स्वाभिमान हमारा,  है  घमंड 
अलग अलग लोगों खातिर ,क्यों अलग अलग है मापदंड 

कान्हा माखनचोरी करते ,वो बचपन क्रीड़ा  कहलाती 
हम करें जरा सी भी चोरी ,तो जेल हमे है  हो जाती 
वो गोपी छेड़े ,चीर हरे ,तो वह होती उसकी लीला 
हम वैसा करें मार डंडे ,पोलिस  कर देती है ढीला 
उनके तो है सौ खून माफ़ ,हम गाली भी दें ,मिले दंड 
अलग अलग लोगो खातिर क्यों अलग अलग है मापदंड

है मुर्ख ,भोगती पर सत्ता ,सत्तरूढ़ों की संताने 
हो रहे उपेक्षित बुद्धिमान ,कितने ही जाने पहचाने 
कितने लड्डू प्रसाद चढ़ते ,मंदिर में पत्थर मूरत पर 
और हाथ पसारे कुछ  भूखे ,भिक्षा मांगे मंदिर पथ पर 
कोई को मट्ठा  भी न मिले ,कोई खाता है श्रीखंड 
अलग अलग लोगो खातिर क्यों अलग अलग है मापदंड 

कोई प्रतियोगी अधिक अंक ,पाकर भी जॉब नहीं पाते 
कुछ वर्गों को आरक्षण है ,कुर्सी पर काबिज़ हो जाते 
लायक होने की कद्र नहीं ,जाती विशेष आवश्यक है 
कितने ही प्रतिभावानों का ,मारा जाता यूं ही हक़  है 
कोई उड़ता है बिना पंख ,कोई के सपने खंड खंड 
अलग अलग लोगों खातिर ,क्यों अलग अलग है मापदंड 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
डंडे का डर 

पहले राजे महाराजे फिर मुगल सल्तनत 
और कई वर्षों तक फिर अंग्रेजी हुकूमत 
हुए  गुलाम  बने  रहने  के इतने  आदी 
हमें कठिन हो रहा पचाना अब आजादी
इसीलिये हम आपस में ही झगड़ रहें है 
एक दूजे की टांग खींच कर पकड़ रहे है 
बात बात पर चिल्लाते है,लगते  लड़ने 
एक केंकड़ा  दूजे का  ना देता  बढ़ने 
मुश्किल से जिस आजादी का स्वाद चखा है 
हमने उसको एक मखौल बना रख्खा  है  
आसपास दुश्मन है ,विपदा कई खड़ी है 
लेकिन हमको सबको अपनी सिर्फ पड़ी है 
अपनी ढपली अपना राग पीटते हरदम 
मिल कर कभी न कोरस में कुछ गा पाते हम  
भले देश में  इतने ज्यादा  संसाधन है 
उन्हें लूट बस अपना पेट भर रहे हम है 
बात बात ,बेबात ,करें आपस में दंगे 
इस हमाम में तो हम सब के सब है नंगे 
रहा यही जो हाल अगर तो मुश्किल होगी 
कैसे हमको प्राप्त हमारी मंजिल होगी 
इतनी अधिक गुलामी खूं में बैठ गयी जम 
बिन डंडे के डर से काम न कर पाते हम 
हो डंडे का जोर तभी आता अनुशासन 
वरना इधर उधर बिखरे रहते है कण कण 
फहराता है सदा किसी का तब ही झंडा 
नीचे लगा हुआ  होता जब उसमे डंडा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '   

सोमवार, 3 सितंबर 2018

कबड्डी का खेल-हमारा मेल 

तुमने खूब कब्बडी खेली ,
हूँ तू तू कहते तुम मेरे पाले में आये 
इसको छुवा,उसको छुवा ,
लेकिन मुझको हाथ लगा भी तुम ना पाए 
वो मैं ही थी कि जिसने आगे बढ़ कर 
रोक लिया था तुम्हे तुम्हारा हाथ पकड़ कर 
और मेरे जिन हाथों को तुम कहते कोमल 
उन हाथों ने रखा देर तक तुम्हे जकड़ कर 
हुआ तुम्हारा हू तू कहना बंद,
 और तुम आउट होकर  हार गए  थे 
लेकिन तुमने जीत लिया था मेरे दिल को ,
और तुम बाजी मार गए थे 
पर मैं जीती और तुम हारे 
स्वर्ण पदक सी वरमाला बन ,
लटक गयी मैं गले तुम्हारे 
तब से अब तक ,मेरे डीयर 
घर से दफ्तर ,दफ्तर से घर 
रोज कबड्डी करते हो तुम 
और मैं घर में बैठी गुमसुम 
रहती हूँ इस इन्तजार में 
वही पुराना जोश लिए तुम डूब प्यार में 
हूँ तू करते कब आओगे ,
और मैं कब पकड़ूँगी तुमको 
अपने बाहुपाश में कब जकड़ूँगी तुमको 
पर तुम इतने पस्त थके से अब आते हो 
खाना खाते  ,सो जाते हो 
वह चंचल और चुस्त खिलाडी फुर्तीला सा 
कहाँ  खो गया ,रोज पड़ा रहता ढीला सा 
जी करता बाहों में लेलो 
फिर से कभी कबड्डी खेलो 

घोटू 

मौसमी मिठाइयां 

बारह महीने रसगुल्लों के ,हर दिन काजू की कतली का 
आनंद कलाकंद का हरदम ,हर मौसम होता रबड़ी का 
लगते गुलाब जामुन प्यारे ,हो सर्दी गर्मी ,कुछ मौसम 
और गरम जलेबी का जलवा , मुख में रस भरता है हरदम 
मौसम कुछ ख़ास मिठाई का ,होता कुछ ख़ास महीनो में
ज्यों घेवर ,तेवर दिखलाता ,सावन भादौ के महीनो  में  
सर्दी में 'पिन्नी ' मतवाली ,गाजर का गरम गरम हलवा 
और तिल की गजक रेवड़ी भी ,सर्दी में दिखलाती जलवा 
हो गरम दूध ,उसमे फेनी ,सर्दी का ब्रेकफास्ट सुंदर 
ठंडी कुल्फी ,आइसक्रीम ,कम करती गर्मी के तेवर 
है सदाबहार समोसे जी ,इनका ना घटता आकर्षण 
और चाय और पकोड़ों का ,तो हरदम ही रहता मौसम 

मदन मोहन बाहेती;घोटू '
       हम भी कैसे है?

प्रार्थना करते ईश्वर से ,घिरे बादल ,गिरे पानी,
          मगर बरसात  होती है तो छतरी तान लेते है 
बहुत हम चाहते  है कि चले झोंके हवाओं के ,
           हवा पर चलती जब ठंडी ,बंद कर द्वार लेते है 
हमारी होती है इच्छा ,सुहानी धूप खिल जाये ,
            मगर जब धूप खिलती है,छाँव में  भाग जाते है
 देख कर के हसीना को,आरजू करते पाने की,
           जो मिल जाती वो बीबी बन,गृहस्थी में जुटाते है 
हमेशा हमने देखा है,अजब फितरत है इन्सां की  ,
           न होता पास जो उसके  ,उसी की चाह करता  है 
मगर किस्मत से वो सब कुछ ,उसे हासिल जो हो जाता ,
          नहीं उसकी जरा भी  फिर,कभी परवाह करता है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'  

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