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शनिवार, 8 सितंबर 2012

बरसात का मौसम सुहाना

बरसात का मौसम सुहाना

आ गया,मन भा गया,बरसात का मौसम सुहाना

गेलरी में,बैठ कर के,पकोड़े   ,गुलगुले  खाना
सांवले से बादलों से  बरसती रिमझिम फुहारें
हरीतिमा अपनी बिखेरे,नहाये से ,वृक्ष  सारे
कर रहा आराम सूरज,आजकल है छुट्टियों पर
धूप तरसे मिलन को पर ,आ नहीं सकती धरा पर
सजी दुल्हन सी धरा पर,उसे बादल है  छुपाये
बड़ा है मनचला चंदा, नजर उसकी पड़ न  जाये
एक सौंधी सी महक,वातावरण में  घुल गयी है
हो गयी है तृप्त धरती,प्रेमरस  से धुल गयी है
वृक्ष पत्तों से लिपट कर,टपकती जल बूँद है यूं
याद में अपने पिया की ,बहाती विरहने  आंसूं
पांख भीजे,पंछियों के,अब जरा कम है चहकना
झांकता  सुन्दर बदन जब भीगती है श्वेत वसना
बड़ा ही मदमस्त मौसम,सभी को करता  दीवाना
आ गया,मन भा गया,बरसात का मौसम सुहाना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चाखने की ये उमर है

      चाखने की ये उमर है

देख कर बहला लिया मन,और बस करना सबर  है

नहीं खाने की रही ,बस चाखने की ये उमर   है
मज़े थे जितने उठाने,ले लिये सब जवानी में
अब तो उपसंहार ही  बस,है बचा इस कहानी में
याद आती है पुरानी, गए वो दिन खेलने के
बड़े ही चुभने लगे ये दिन मुसीबत  झेलने के
मचलता तो मन बहुत पर,तन नहीं अब साथ देता
त्रास,पीडायें हज़ारों,  बुढ़ापा दिन    रात         देता
जब भी मौका मिले तो बस, ताकने की ये उमर है
नहीं खाने की रही बस चाखने की ये उमर   है
तना तो अब भी तना है,पड़ गए पर पात पीले
दांत,आँखे,पाँव ,घुटने,पड़  गए सब अंग ढीले
क्या गुजरती है ह्रदय पर,आपको हम क्या बताएं
बुलाती है हमको अंकल कह के जब नवयौवनाएं
सामने पकवान है पर आप खा सकते नहीं है
मन मसोसे सब्र करना,बचा अब शायद यही है
हुस्न को बस  ,कनखियों से,झाँकने की ये उमर है
नहीं खाने की रही बस चाखने  की ये उमर  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

मन बिरहन का

मन बिरहन का
  
बरस बरस कर रीते मेघा,
     उमर कट गयी बरस बरस कर
बरस बरस तक ,बहते बहते,
      आंसू सूखे,बरस बरस   कर
मन में लेकर,आस दरस की,
       रह निहारी,कसक कसक कर
हमने साड़ी,उम्र गुजारी,
        यूं ही अकेले, टसक टसक कर
गरज गरज ,छाये घन काले,
       बहुत सताया ,घुमड़ घुमड़ कर
आई यादों की बरसातें,
           आंसू निकले ,उमड़ उमड़  कर
नयन निगोड़े,आस न छोड़े,
        रहे ताकते,डगर डगर  पर
  मेरे सपने,रहे न अपने,
         टूट गए सब,बिखर बिखर कर
ना आना था,तुम ना आये,
        रही अभागन,तरस तरस कर
बरस बरस कर,रीते मेघा,
      उमर कट गयी,बरस बरस कर

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रकृति और मानव

प्रकृति और मानव

समंदर का खारा पानी,
प्रकृति के स्पर्श से,
सूरज की गर्मी पा,
बादल बन बरसता है
मीठा बन जाता है
सब को हर्षाता है
और वो ही शुद्ध जल,
पीता जब है मानव,
तो मानव का स्पर्श पा,
शुद्ध जल ,शुद्ध नहीं रह पाता
मल मूत्र बन कर के,
 नालियों में बह जाता
प्रकृति के संपर्क से ,
बुरा भी बन जाता भला,
और मानव के संपर्क से,
भला भी जाता बिगड़ है
प्रकृति और मानव में,
ये ही तो अंतर है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

रुंगावन

       रुंगावन

मै तो लेने गया था ,इस जग की जिम्मेदारियां ,
                    रुंगावन  में बाँध दी संग,उसने कुछ  खुशियाँ मुझे
कुछ ठहाके,कहकहे कुछ,और कुछ मुस्कान भी,
                    लगी फिर से अच्छी लगने, ये तेरी दुनिया   मुझे
देता है सौदा खरा और नहीं डंडी मारता,
                    मुकद्दर से ही मिला है,तुझसा एक बनिया मुझे
कितने कांटे,कितने पत्थर और कितनी ठोकरें,
                    रोकने को राह ,रस्ते में मिला क्या क्या मुझे
  यहाँ से लेकर वहां तक ,मुश्किलें ही मुश्किलें,
                     पार करना पडा था एक आग का दरिया  मुझे
दूसरों के दोष मैंने देखना बंद करदिया,
                     नज़र खुद में ,लगी आने सैकड़ों ,कमियां मुझे
उसने रोशन राह करदी,सब अँधेरे मिट गए,
                       राह में मिल गयी बिखरी,हजारों खुशियाँ मुझे
लिखा था जो मुकद्दर में,उससे ज्यादा ही मिला,
                       उसकी मेहर हो गयी और  मिल गया क्या क्या मुझे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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