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सोमवार, 29 जुलाई 2013

नींद जब जाती उचट है ....

नींद जब जाती उचट है ...

नींद जब जाती उचट है रात को ,
                     जाने क्या क्या सोचता है आदमी
पंख सुनहरे लगा कर आस के ,
                      चाँद तक जा पहुंचता है  आदमी
दरिया में बीते दिनों की याद के ,
                       तैरता  है ,डुबकियाँ है मारता
गुजरे दिन के कितने ही किस्से हसीं,
                         कितनी ही आधी अधूरी दास्ताँ
ह्रदय पट पर खयालों  के चाक से,
                          लिखता है और पोंछता है आदमी
नींद जब जाती उचट है रात को,
                            जाने क्या क्या सोचता है आदमी
किसने क्या अच्छा किया और क्या बुरा ,
                              उभरती है सभी यादें   मन बसी
कौन सच्छा दोस्त ,दुश्मन कौन है,
                               किसने दिल तोडा और किसने दी खुशी
कितने ही अंजानो की इस भीड़ में,
                               कोई अपना   खोजता है आदमी
नींद जब जाती उचट है रात को,
                                 जाने क्या क्या सोचता है आदमी

मदन मोहन बाहेती' 

अपनी अपनी जीवन शैली

 
अपनी अपनी जीवन शैली

कभी कभी जब धूप  निकलती,है यूरोप के शहरों में
तो अक्सर हमने देखा है ,इन उजली   दोपहरों   में
जोड़े जवां  धूप में बैठे ,मज़ा उठाते  छुट्टी  का
और बूढ़े भी घूमा करते , हाथ पकड़ कर बुड्डी का
उनके बेटे अपने घर है, पोते पोती अपने घर
ओल्ड एज होमो में एकाकी जीवन  कटता अक्सर
पर जब भी मौका मिलता है,ख़ुशी ख़ुशी वो जीते है
बैठ रेस्तरां ,बर्गर खाते,ठंडी बीयर    पीते  है
सबके अपने संस्कार है, अपनी अपनी शैली है
होती भिन्न भिन्न देशों की,परम्परा अलबेली  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 28 जुलाई 2013

एक होटल के रूम की आत्म गाथा

        एक होटल के रूम की  आत्म गाथा
   
 मै होटल का रूम ,भाग्य पर हूँ  मुस्काता  
मुझ मे  रहने रोज़  मुसाफिर नूतन  आता 
थके हुये और पस्त यात्री है जब   आते 
मुझे देख कर ,मन मे बड़ी शांति  पाते 
नर्म,गुदगुदे बिस्तर पर जब पड़ते आकर 
मै खुश होता,उनकी सारी थकन मिटा कर 
मेरा बाथरूम ,हर लेता ,उनकी पीड़ा 
जब वो टब मे बैठ किया करते जल क्रीडा 
मुझ मे आकर ,आ जाती है नई जवानी 
कितने ही अधेड़ जोड़े  होते  तूफानी 
अपनी किस्मत पर उस दिन इतराता थोड़ा 
हनीमून पर ,आता नया विवाहित जोड़ा 
रात रात भर ,वो जगते,मै भी जगता हूँ 
सुबह देखना,बिखरा,थका हुआ  लगता हूँ 
कभी कभी कुछ खूसट बूढ़े भी आजाते 
खाँस खाँस कर,खुद भी जगते,मुझे जगाते 
तरह तरह के लोग कई अपने,बेगाने 
आते है मेरे संग मे कुछ रात बिताने 
देश देश के लोग ,सभी की अपनी भाषा 
मै खुश होता ,उनको दे आराम  ,जरा सा 
बाकी तो सब ,ये दुनिया है  आनी,जानी   
मै होटल का रूम,मेरी है  यही कहानी 

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

वादियाँ यूरोप की

(21 दिन के पूर्वी यूरोप के प्रवास के बाद आज वापस आया हूँ.यूरोप की वादियों पर लिखी एक रचना प्रस्तुत है )
    
         
आँख को ठंडक मिलीऔर आगया दिल को सुकूँ ,
मुग्ध हो देखा किया मै, वादियाँ  यूरोप की 
कहीं बर्फीली चमकती,कहीं हरियाली भरी,
सर उठा सबको बुलाती,पहाड़ियाँ यूरोप   की  
गौरवर्णी,स्वर्णकेशी,अल्पवस्त्रा ,सुहानी,
हुस्न का जैसे खजाना ,लड़कियां यूरोप की 
प्रेमिका से प्यार करने ,नहीं कोना ,ढूंढते ,
प्रीत खुल्ले मे दिखाये ,जोड़ियाँ,यूरोप  की 
हरित भूतल,श्वेत अंबर ,और सुहाना सा है सफर ,
बड़ी दिलकश,गयी मन बस,फिजायें यूरोप की 
शांत सा वातावरण है,कोई कोलाहल नहीं,
बड़ी शीतल,खुशनुमा है ,हवाएँ यूरोप की 
है  खुला  उन्मुक्त जीवन ,कोई आडंबर नहीं,
बड़ी है मन को सुहाती,  मस्तियाँ यूरोप  की 
देखता रहता है दिन भर,अस्त होता देर से,
सूर्य को इतना लुभाती, शोखियाँ  यूरोप की 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 
  

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

प्रियतमे कब आओगी


   प्रियतमे कब आओगी 
मेरे दिल को तोड़ कर 
यूं ही अकेला छोड़ कर 
जब से तुम मैके  गई 
चैन सब ले के   गयी 
इस कदर असहाय हूँ 
खुद ही बनाता चाय हूँ 
खाना क्या,क्या नाश्ता 
खाता  पीज़ा,  पास्ता
या फिर मेगी बनाता 
काम अपना चलाता 
रात भी अब ना कटे 
बदलता  हूँ करवटें 
अब तो गर्मी भी गयी 
बारिशें है आ गयी 
कब तलक तड़फाओगी 
प्रियतमे कब  आओगी ? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रियतमे कब आओगी


   प्रियतमे कब आओगी 
मेरे दिल को तोड़ कर 
यूं ही अकेला छोड़ कर 
जब से तुम मैके  गई 
चैन सब ले के   गयी 
इस कदर असहाय हूँ 
खुद ही बनाता चाय हूँ 
खाना क्या,क्या नाश्ता 
खाता  पीज़ा,  पास्ता
या फिर मेगी बनाता 
काम अपना चलाता 
रात भी अब ना कटे 
बदलता  हूँ करवटें 
अब तो गर्मी भी गयी 
बारिशें है आ गयी 
कब तलक तड़फाओगी 
प्रियतमे कब  आओगी ? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हाले-जुदाई

         
          हाले-जुदाई  
जुदाई मे जर्द चेहरा हो गया है,
             हिज्र की हर सांस भारी हो गयी है 
याद मे तेरी ये हालत बन गयी,
             लोग कहते है बीमारी हो गयी  है 
बदलते रहते है करवट रात भर हम ,
              इतनी ज्यादा बेकरारी  हो गयी है 
नींद हमको रात भर आती नहीं है ,
               इस कदर आदत तुम्हारी हो गयी है 
आजकल हम खुद से ही रहते खफा है,
               एसी  कुछ हालत हमारी   हो गयी है 
'घोटू'अब आ जाओ दिल लगता नहीं है,
                बड़ी लम्बी इंतजारी   हो गयी है 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'       

जीभ और दाँत

  
       जीभ और दाँत 
जीभ हो या दाँत हो ,सब एक ही परिवार है 
बहुत भाईचारा इनमे,अपनापन और प्यार है 
जीभ है माँ सी मुलायम,दाँत बेटे  सख्त है 
चबा कर देते है खाना ,मातृ के वो भक्त  है 
काटता है जो कोई तो,कोई फिर है चबाता 
बड़ा हो छोटा हो पर कंधे से कंधा मिलाता 
काम करने का सभी का ,अपना अपना ढंग है 
एक घर मे ,ऊपर नीचे,सभी रहते संग है 
अगर दाँतो बीच मे जो ,कचरा कुछ भी जा फसे 
माँ सी हो बेचैन,बेकल ,ढूंढती  जिव्हा  उसे 
करती रहती कोशिशें,जब तक न वो जाये निकल
अच्छे अच्छों की उतारे ,कैंची सी जो जाये चल 
प्यार मे रसभरी है तो गुस्से मे  अंगार है 
जीभ हो या दाँत हो सब एक ही परिवार है 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'               

सत्ता

           
             सत्ता 
सत्ता ,
वो खिला पुष्प है,
जो जब महकता है,
तो आसपास भँवरे गुंजन करते है 
 और तितलियाँ,मंडराया करती है 
पर सत्ताधारी मधुमख्खी,
उसका मधुपान कर,
सारा शहद ,अपने ही छत्ते मे भरती है
सत्ता,
वो दूध है जिसको पीने से,
आदमी मे बहुत ताक़त आ जाती है 
और जिसके पकने पर,
खोये की मिठाई बन जाती है 
और तो और,अगर दूध फट भी जाता है,
तो छेना बन,रसगुल्ले का स्वाद देता है 
जो जिंदगी भर याद रहता है 
सत्ता,
वो दावत है,
जहां जब कोई जीमने जाता है 
तो इतना खाता है 
कि उसका हाजमा बिगड़ जाता है 
और इलाज के लिए ,
वो स्वीजरलेंड या  खाड़ी देश जाता है 
सत्ता ,
वो पकवान है ,जो सबको ललचाते है 
और जिसको पकाने और खाने के लिए,
चमचे जुट जाते है 
सत्ता,
वो व्यसन है,
जिसका जब चस्का लग जाता है 
तो खाने से ही नहीं,
पाने से ही आदमी बौराता है 
सत्ता ,
वो तिलस्मी दरवाजा है,जिसमे से,
एक बार जो कोई गुजर जाता है,
सोने का हो जाता है 
सत्ता,
वो जादुई जाम है,
जिसमे भर कर सादा पानी भी पी लो,
तो एसा नशा चढ़ता है,
जो पाँच साल बाद ही उतरता है 
सत्ता ,
कब तक ,किसकी,
और कितने दिन रहेगी,
किसी को नहीं होता पता 
इसलिए सत्ता मे आते ही ,
जुट जाते है सब बनाने मे मालमत्ता 
पता नहीं,कब कट जाये पत्ता 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
     


इस सदी की त्रासदी

      
          इस सदी की त्रासदी 
किससे हम शिकवा करें,और करें अब किससे गिला
हमारी गुश्ताखियों का ,हमको  एसा  फल मिला 
खुदा ने नदियां बनाई ,हमने रोका बांध कर,
बारूदों से ब्लास्ट कर के ,दिये सब पर्वत हिला 
इस तरह पर्यावरण के संग मे की छेड़ छाड़ ,
हो गयी नाराज़ कुदरत ,और उसने तिलमिला 
नदी उफनी,फटे बादल,ढहे पर्वत इस कदर,
कहर टूटा खुदा का ज्यों आ गया हो जलजला 
हजारों घर बह गए और कितनी ही जाने गयी,
भक्ति,श्रद्धा ,आस्था को ,दिया सब की ही हिला 
देखते ही देखते बर्बाद सब कुछ हो गया ,
मिला हमको ,हमारी ही ,हरकतों का ये सिला 
होता व्यापारीकरण जब,आस्था विश्वास का,
शुरू हो जाता है फिर बरबादियों का सिलसिला 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'  

सोमवार, 1 जुलाई 2013

वादियाँ यूरोप की

    
           वादियाँ  यूरोप की 
आँख को ठंडक मिलीऔर आगया दिल को सुकूँ ,
मुग्ध हो देखा किया मै, वादियाँ  यूरोप की 
कहीं बर्फीली चमकती,कहीं हरियाली भरी,
सर उठा सबको बुलाती,वादियाँ यूरोप  की  
गौरवर्णी,स्वर्णकेशी,अल्पवस्त्रा ,सुहानी,
हुस्न का जैसे खजाना ,लड़कियां यूरोप की 
प्रेमिका से प्यार करने ,नहीं कोना ,ढूंढते ,
प्रीत खुल्ले मे दिखाये ,जोड़ियाँ,यूरोप  की 
हरित भूतल,श्वेत अंबर ,और सुहाना सा है सफर ,
बड़ी दिलकश,गयी मन बस,फिजायें यूरोप की 
शांत सा वातावरण है,कोई कोलाहल नहीं,
बड़ी शीतल,खुशनुमा है ,हवाएँ यूरोप की 
है  खुला  उन्मुक्त जीवन ,कोई आडंबर नहीं,
बड़ी है मन को सुहाती,  मस्तियाँ यूरोप  की 
देखता रहता है दिन भर,अस्त होता देर से,
सूर्य को इतना लुभाती, शोखियाँ  यूरोप की 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 
  

पुराने दिनो की याद

                   पुराने दिनो की याद 
                 
     दिन मस्ताने,शाम सुहानी,रात दीवानी होती थी 
     हमे याद आते वो दिन ,जब,हममे जवानी होती थी 
तेरी हुस्न,अदा ,जलवों पर,तब हम इतना मरते थे 
जैसे होती सुबह,रात का,   इंतजार हम करते थे  
       छेड़छाड़ चलती थी दिन भर, यही कहानी होती  थी 
       हमे याद आते वो दिन ,जब हममे  जवानी होती थी 
शर्माती थी तो गुलाब से ,गाल तुम्हारे हो जाते 
लाल रंग के होठ लरजते,मधु के प्याले हो जाते 
       और तुम्हारी,शोख अदाएं ,भी मरजानी  होती थी 
       हमे याद आते वो दिन जब ,हममे  जवानी होती थी 
रिमझिम बारिश की फुहारों मे हम भीगा करते थे 
तुम्हें पता है,मुझे पता है,फिर हम क्या क्या करते थे 
        बेकल राजा की बाहों मे,पागल रानी होती थी 
        हमे याद आते वो दिन ,जब हममे जवानी होती थी 
रात चाँदनी मे जब छत पर ,हम तुम सोया करते थे 
मधुर मिलन की धुन मे बेसुध होकर  खोया करते थे 
          चाँद देखता ,तुम शर्मा कर,पानी पानी  होती थी 
          हमे याद आते वो दिन ,जब हममे जवानी होती थी 
पर अब ना वो मधु,मधुशाला ,ना मतवाला साकी है 
उस मयखाने,की रौनक की ,केवल यादें बाकी है 
           जब मदिरा से ज्यादा मादक,तू मस्तानी होती थी 
           हमे याद आते वो दिन जब ,हममे जवानी होती थी 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

कहर के बाद

          
          कहर के बाद 
मै तुम्हें मंद मंद मंथर गति से ,
बहने वाली मंदाकिनी कहता था 
तुम्हारे शिखरों की तारीफ करता रहता था 
तुम्हारी जुल्फों को कहता था काली घटायें
और लगती थी बिजली गिराती हुई ,
मुझे तुम्हारी सारी अदायें
पर जब से ,
मन्दाकिनी ने उमड़ कर ,
बादलों ने फट कर ,
पहाड़ों के शिखरों ने ढह कर,
बिजलियों ने कडक कर ,
उत्तराखंड मे ढाया है कहर 
खंड खंड हो गयी है मेरी उपमायें
और मैंने बंद कर दिया है,
तुम्हारी तारीफ मे ये सब कहना 
मुझको तो तुम,
जैसी हो ,वैसी ही अच्छी लगती हो,
और हरदम ,एसी ही रहना 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   ,
   
   

शुक्रवार, 28 जून 2013

संगत का असर


    संगत का असर 
हम रहते है जिनके संग मे 
हमे रंगना पड़ता है,उनही के रंग मे 
हमारे सोचने का ढंग,
उनके जैसा ही हो जाता है 
और उनके सुख दुख का ,
हम पर भी असर आता है 
नेताओं के साथ साथ ,चमचे भी पूजे जाते है 
पति और पत्नी ,
एक दूसरे के साथ,हँसते गाते है 
आपने देखा होगा ,मंदिर मे,
शिवलिंग पर जब लोग जल चढ़ाते है 
तो पास मे बैठी हुई ,
अच्छी ख़ासी चूनरी ओढ़े ,
पार्वती जी  को भी भिगाते है
और तो और ,उनके बेटे गणेशजी और 
कार्तिकेय के साथ साथ,
उनके वाहन नंदी को भी नहलाते है 
सारा परिवार जब साथ साथ रहता है 
तो सारे सुख और दुख,संग संग सहता है 
इसलिए ये बात हमे ठीक ठीक समझना चाहिए 
हमे किसी का भी साथ,
सोच समझ कर ही करना चाहिए 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

एक कवि पत्नी की व्यथा


     एक कवि पत्नी की व्यथा 

एक हनुमान जी थे,
जो अपने बॉस के दोस्त की,
 बीबी को ढूँढने के लिए  
समुंदर भी लांघ गए थे 
एक तुलसी दास जी थे,
जो बीबी से मिलने को बेकल हो,
उफनती नदी को पार कर,
साँप को रस्सी समझ लटक गए थे 
और एक हमारे हनुमान भक्त ,
कविराज पति जी है,
जो करते तो है बड़ी बड़ी बातें 
पर रात को बिस्तर पर पड़ा ,
एक तकिया तक नहीं लांघ पाते 
कविजी की पत्नी ने ,
अपनी व्यथा सुनाई,शर्माते,शर्माते 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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गुरुवार, 27 जून 2013

बुढ़ापे की पीड़ा-चार मुक्तक


        
          बुढ़ापे  की पीड़ा -चार मुक्तक
                       1
क्या गज़ब का हुस्न था,वो शोख थी,झक्कास थी
धधकती ज्वालामुखी के बीच जैसे आग   थी
देख कर ये,कढ़ी बासी भी उबलने  लग गयी,
मन मचलने लग गया,नज़रें हुई  गुस्ताख़ थी
                        2
हम पसीना पसीना थे,हसीना को देख कर
पास आई ,टिशू पेपर ,दिया हमको ,फेंक कर
बोली अंकल,यूं ही तुम क्यों,पानी पानी हो रहे ,
किसी आंटीजी को ताड़ो,उमर अपनी देख कर
                        3
  जवानी की यादें प्यारी,अब भी है मन मे बसी
  बड़े ही थे दिन सुहाने,और रातें थी  हसीं
  बुढ़ापे ने मगर आकर,सब कबाड़ा कर दिया ,
  करना चाहें,कर न पाये,हाय कैसी  बेबसी
                     4
घिरते तो बादल बहुत हैं,पर बरस पाते नहीं
उमर का एसा असर है ,खड़े हो पाते नहीं
देखकर स्विमिंगपूल को,मन मे उठती है लहर,  
डुबकियाँ मारे और तैरें,कुछ भी कर पाते नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

दास्ताने बुढ़ापा

         
           दास्ताने  बुढ़ापा 
  बस यूं ही बेकार मे और खामखाँ
  रहता हूँ मै मौन ,गुमसुम,परेशां 
  मुश्किलें ही मुश्किलें है हर तरफ,
  बताओ दिन भर अकेला करूँ क्या 
  वक़्त काटे से मेरा कटता नहीं,
  कब तलक अखबार,बैठूँ,चाटता 
   डाक्टर ने खाने पीने पे मेरे ,
    लगा दी है ढेर सी पाबंदियाँ  
   पसंदीदा कुछ भी का सकता नहीं,
    दवाई की गोलियां है  नाश्ता 
    टी.वी, के चेनल बदलता मै रहूँ,
    हाथ मे रिमोट का ले झुनझुना 
   एक जैसे सीरियल,किस्से वही ,
   वही खबरें,हर जगह और हर दफ़ा
   नींद भी आती नहीं है ठीक से ,
    रात भर करवट रहूँ मै बदलता 
   तन बदन मे ,कभी दिल मे दर्द है,
   नहीं थमता ,मुश्किलों का सिलसिला 
   जो लिखा है मुकद्दर मे हो रहा ,
   करूँ किससे शिकवे ,मै किससे गिला
   मन कहीं भी नहीं लगता ,क्या करूँ,
   खफा खुद से रहता हूँ मै गमजदा 
   'घोटू' लानत,उम्र के इस दौर पर,
    बुढ़ापे मे ,ये सभी की दास्ताँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

  

Mahesh Prasad added you to his circles and invited you to join Google+

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बुधवार, 26 जून 2013

हाले चमन 

था खूबसूरत ,खुशनुमा,खुशहाल जो चमन ,
भंवरों ने रस चुरा चुरा ,बदनाम कर दिया 
कुछ उल्लुओं ने डालों पे डेरे बसा लिए,
कुछ चील कव्वों ने भी परेशान कर दिया 
था खूबसूरत,मखमली जो लॉन हरा सा ,
पीला सा पड गया है खर पतवार उग गये ,
माली यहाँ के बेखबर ,खटिया पे सो रहे ,
गुलजार गुलिस्ताँ को बियाबान कर दिया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' -


Re: नामाक्षर गण्यते



Exellent and nice tbougbt
Sent from Samsung Mobile


madan mohan Baheti <baheti.mm@gmail.com> wrote:


             नामाक्षर  गण्यते
           
 दुशयंत  ने,शकुंतला से गंधर्व शादी रचाई 
उसे  भोगा ,और,
अपने नाम लिखी एक अंगूठी पहनाई 
और राजधानी चला गया,यह कह कर
'नामाक्षर गण्यते' याने,
मेरे नाम के तुम गिनना अक्षर 
इस बीच मै आऊँगा  
और तुम्हें महलों मे ले जाऊंगा 
गलती से शकुंतला की अंगूठी खो गई 
और कई दिनो तक,जब दुष्यंत आया नहीं 
तो शकुंतला गई राज दरबार 
पर दुष्यंत ने पहचानने से कर दिया इंकार 
 जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आ जाता है  
क्योंकि ,आज की सत्ता ,दुशयंत सी है,
जो चुनाव के समय,
शकुंतला सी भोली जनता पर,
प्रेम का प्रदर्शन कर ,
सत्ता का सुख भोग लेती  है 
और फिर उसे कभी अंगूठा ,
या आश्वासन की अंगूठी पहना देती  है 
साड़ेचार अक्षरों का नाम लिखा होता है जिस पर 
सत्ता सुख की मछली ,
उस अंगूठी को निगल जाती है ,पर 
और गुहार करती ,जनता,जब राजदरबार जाती है 
पहचानी भी नहीं जाती है 
हाँ,नामाक्षर गण्यते का वादा निभाया जाता  है 
उसके नाम का एक एक अक्षर,
एक एक वर्ष सा हो जाता है 
और तब कहीं साड़े चार साल बाद 
उसे आती है जनता की याद 
क्योंकि पांचवें साल मे,
 आने वाला होता है चुनाव  
और सत्ताधारियों को याद आने लगता है,
जनता के प्रति अपना  लगाव 
जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आता है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 25 जून 2013

बैंड बज गया

    
     बैंड बज गया 
भारत की क्रिकेट टीम ने,
इंगलेंड को हरा कर ,
चेम्पियन ट्रॉफी को जीत लिया 
टी.वी.चेनल की हेड लाइन थी,
'भारत ने इंगलेंड का बैंड बजा दिया'
जब भी कोई होता है परास्त 
या उसे मिलती है मात 
तो उसका बैंड बज गया ,
एसा कहा जाता है 
क्या शादी के अवसर पर ,
इसीलिए बैंड बजाया जाता है? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सवेरे की सैर

        
             सवेरे की सैर 
सवेरे सवेरे ,
प्राची के एक कोने से,
झाँकता हुआ सूरज ,
देखता है ये सारे नज़ारे 
अपने हालातों से परेशान,
फिर भी अट्ठ्हास लगाते हुये ,
लाफिंग क्लब के,सदस्य सारे 
सासों के शिकवे ,बहुओं के गिले
सुनाई देते  है,कभी  न खतम होने वाले,
अंत हीन सिलसिले
लकड़ी के सहारे ,धीरे धीरे टहलते ,
बुजुर्गों की व्यथाएं 
बढ़ती हुई उमर की,पीड़ा की कथाएँ 
प्राम मे बैठा कर ,अपने नन्हें पोते,पोतियाँ 
घुमाती हुई,घुटनो के दर्द से ,
पीड़ित उनकी दादियाँ
अपने नाजुक कंधों पर,
ढेर सारी किताबों का बोझ लादे ,
भविष्य के सपने सँजोये , 
स्कूल बस पकड़ने भागते बच्चेऔर बच्चियाँ   
और हाथ मे सेंडविच लिए,
बच्चों को खिलाती हुई ,
उनके संग संग भागती ,उनकी मम्मियाँ 
अपने लाडले को झूला झुलाते हुये पिता 
और हर पेंग पर ,उसकी मम्मी ,
उसे केले का एक बाइट खिलाती जाये  
फोन पर प्रवचन या पुराने गाने सुनते,
सेहत के प्रति जागरूक ,
पुरुष  और महिलायें 
अपनी बुझती हुई आँखों मे ,
भरे हुये लाचारी 
हरी हरी घाँस पर ,
नंगे पैर घूमते नर नारी 
मै भी सुबह सुबह की सैर के बाद,
ठंडी ठंडी हवाओं के झोंकों से,
ठंडी सी सांस भर , एक बार 
थका थका ,अपने घर की तरफ लौटता हूँ,
जहां पर चाय का प्याला बना,
मेरी बीबी ,कर रही होगी मेरा इंतजार 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 
   

रविवार, 23 जून 2013

नामाक्षर गण्यते

             नामाक्षर  गण्यते
           
 दुशयंत  ने,शकुंतला से गंधर्व शादी रचाई 
उसे  भोगा ,और,
अपने नाम लिखी एक अंगूठी पहनाई 
और राजधानी चला गया,यह कह कर
'नामाक्षर गण्यते' याने,
मेरे नाम के तुम गिनना अक्षर 
इस बीच मै आऊँगा  
और तुम्हें महलों मे ले जाऊंगा 
गलती से शकुंतला की अंगूठी खो गई 
और कई दिनो तक,जब दुष्यंत आया नहीं 
तो शकुंतला गई राज दरबार 
पर दुष्यंत ने पहचानने से कर दिया इंकार 
 जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आ जाता है  
क्योंकि ,आज की सत्ता ,दुशयंत सी है,
जो चुनाव के समय,
शकुंतला सी भोली जनता पर,
प्रेम का प्रदर्शन कर ,
सत्ता का सुख भोग लेती  है 
और फिर उसे कभी अंगूठा ,
या आश्वासन की अंगूठी पहना देती  है 
साड़ेचार अक्षरों का नाम लिखा होता है जिस पर 
सत्ता सुख की मछली ,
उस अंगूठी को निगल जाती है ,पर 
और गुहार करती ,जनता,जब राजदरबार जाती है 
पहचानी भी नहीं जाती है 
हाँ,नामाक्षर गण्यते का वादा निभाया जाता  है 
उसके नाम का एक एक अक्षर,
एक एक वर्ष सा हो जाता है 
और तब कहीं साड़े चार साल बाद 
उसे आती है जनता की याद 
क्योंकि पांचवें साल मे,
 आने वाला होता है चुनाव  
और सत्ताधारियों को याद आने लगता है,
जनता के प्रति अपना  लगाव 
जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आता है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हे गंगाधर!


हे शिव शंकर!
श्रद्धानत भक्तों की भारी भीड़ देख कर,
आप इतने द्रवीभूत हो गए,
कि आपका दिल बादल सा फट पड़ा 
आपने तो अपनी जटाओं मे ,
स्वर्ग से अवतरित होती गंगा के वेग को,
वहन कर लिया था ,
पर हम मे इतना सामर्थ्य कहाँ,
जो आपकी भावनाओं के वेग को झेल सकें,
आपने बरसने के पहले ये तो सोचा होता 
भस्मासुर कि तरह वरदान देकर ,
कितनों को भस्म कर दिया 
मंद मंद बहनेवाली मंदाकिनी को,
वेगवती बना दिया
अपनी ही मूर्ती को ,गंगा मे बहा दिया 
हे गंगाधर !
आपने ये क्या किया ?
मदन मोहन बाहेती'घोटू ' 

मै ना बदला,तुम ना बदली

       

सब कुछ बदल गया दुनिया मे ,
                    मै ना बदला ,तुम  ना बदली 
मै तुम पर पहले सा पगला,
                   और तुम भी  पगली की पगली 
साइकिल अब कार बन गई,काला फोन बना मोबाइल 
और रेडियो ने बन टी वी ,जीत लिया है ,सबका ही दिल 
मटके और सुराही फूटे ,अब घर घर मे रेफ्रीजरेटर 
ए सी ,पंखे,और अब कूलर,गर्मी मे करते ठंडा  घर 
लालटेन और दिये बुझ गए ,
                       अब घर रोशन करती बिजली  
सब  कुछ बदल गया दुनिया मे ,
                      मै ना बदला,तुम ना बदली 
प्रेमपत्र अब लिखे न जाते,इंटरनेट चेट होती  है   
आपस मे अब लुल्लू चुप्पू,मीलों दूर,बैठ होती है 
इस युग मे ,पति पत्नी ,लेकर,इक दूजे का नाम बुलाते 
पर तुम्हारे'ए जी 'ओ जी',अब भी मुझको बहुत सुहाते 
मेरे आँगन बरसा करती,
                   बन कर प्यार भरी तुम बदली 
सब कुछ बदल  गया दुनिया मे,
                   मै ना बदला,तुम ना बदली 
बेटा बेटी ,बदल गये सब,अपना घर परिवार बसा कर 
अपने अपने घर मे खुश है ,कभी कभी मिल जाते आकर
भाई बहन ,व्यस्त अपने मे,सबकी है अपनी मजबूरी 
बस अब हम तुम बचे नीड़ मे,और बनाई सब ने दूरी 
बंधा हुआ मै तुम्हारे संग ,
                      और तुम भी मेरे संग बंध ली 
सब कुछ बदल गया दुनिया मे,
                       मै ना बदला ,तुम ना बादली
       
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 22 जून 2013

सवाल है ईश्वर से....



और एक बार फिर से
दिखा कुदरत का कहर
एक बार फिर से दिखी
हल्की सी एक झलक
प्रलय की - कयामत की....
एक बार फिर से
असहाय सा हुआ मनुष्य
धरी रह गयी सारी गणित
सारा विज्ञान - सारी तकनीक...
हजारों मरे - इतने ही लापता
लाखों को बेघर
न जाने कितने गावों
न जाने कितनी बस्तियों का
एक झटके में सफाया....
लेकिन बहुत कम लोगों पर असर
ज्यादातर मस्त और व्यस्त
(सभी की बात नहीं कर रहा)....
नेता व्यस्त ज्यादा से ज्यादा
मीडिया पर दिखने में
हवाई सर्वेक्षणों मे
अपनी पार्टी की प्रशंसा में
दूसरे की कमियां गिनाने में
राहत के लिये जारी धन में से
कुछ अपनी ओर खिसकाने में...
मीडिया व्यस्त खबर के पोस्टमार्टम में
उसको पूरी तरह से भुनाने में
अपने को सबसे आगे और
सबसे तेज बताने में....
बाबू लोग व्यस्त बला टालने में
काम कम लेकिन स्वयं को
परेशान ज्यादा दिखाने में...
व्यापारी इस बहाने जितना हो सके
तमाम चीजों के दाम बढाने में,
बुद्धिजीवी लोग टीवी देखने और
हर खबर पर अपना गाल बजाने में...
बोलबाला है हर तरफ सिर्फ
दिखावे का - मक्कारी का
बेइमानी का - चालाकी का
दिल तो है सिर्फ कहने के लिये
चलता है सिर्फ दिमाग हमेशा
ताकि निकल जायें सब से आगे
जमा सकें दूसरे पर अधिकार
ताकि बने रहें हमेशा शासकों में
शासितों में नहीं.....
काश....इन सब लोगों पर गिरती गाज
काश...ये लोग आते चपेट में
सुलझ जाती बहुत सी समस्यायें
बदल जाता दुनिया का नक्शा
और महौल हो जाता स्वर्ग जैसा...
लेकिन ऐसा होता नहीं है
महंगाई में पिसता है आम आदमी
हर आपदा में मरता है आम आदमी
यहां तक कि पैदा होने के बाद से ही
रोज किसी न किसी वजह से
तिल - तिल करके मरता है आम आदमी
क्यों........आखिर क्यों ???
ये सवाल है ईश्वर से
ये सवाल है प्रकृति से
ये सवाल है कुदरत से
ये सवाल है कायनात से
क्यों........आखिर क्यों ???

गुरुवार, 20 जून 2013

भेदभाव

        
         भेदभाव 
किसी भी वृक्ष में ,
जब फल लगते है ,
सभी का लगभग एक सा आकार ,
और एक सा स्वाद होता है
कोई पौधा ,
जब पुष्पित होता है,
तो सभी पुष्पों का समान रूप ,
और एक  सी महक होती है
ये सभी वृक्ष और पौधे तूने ही बनाए है
और इंसान को भी तूने ही बनाया है 
तो फिर क्यों ,
तेरे ही बनाये मानव की संताने ,
अलग अलग लिंग,
अलग अलग रूप रंग ,
और अलग अलग स्वभाव लिए होती है ?
भाई भाई या बहन भाई के स्वभाव में ,
इतनी भिन्नता क्यों होती है ?
भगवान ने  इंसान के साथ ,
यह भेदभाव क्यों किया है?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

उत्तराखंड की त्रासदी पर

    
     उत्तराखंड  की त्रासदी पर

हे महादेव!
ये तो हम सब जानते हैं ,
कि आप संहार के देवता है
लेकिन हे केदार !
आप तो हैं बड़े उदार ,
आप तो भोलेनाथ भी कहाते है
अपने भक्तों को ,
दुःख और पीड़ा से बचाते है
तो फिर क्यों,
श्रद्धा से आपको सर नमाने ,
आये हुए भक्तों की भीड़ पर ,
मौत का तांडव दिखा दिया
आप इतने स्वार्थी कब से हो गये ,
कि कितनो का ही घर उजाड़ दिया ,
और अपना घर बचा लिया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सबके कैसे कैसे वाहन

    
         सबके कैसे कैसे  वाहन
श्री गणेश बैठे चूहे पर,कार्तिकेय मोर पर उड़ते 
शंकर जी बैठें नंदी पर,और विष्णु जी उड़े गरुड पे 
सूर्य देवता सात अश्व के,रथ पर चढ़ है घूमा करते 
और यमराज चढ़े भैसे पर,आता देख सभी है डरते 
गदहा शीतल माँ का वाहन ,शनि देव का वाहन हाथी 
इंद्र देवता एरावत पर,ख़ुद उड़ते है हनुमान जी
दुर्गा करती सिंह सवारी ,उल्लू है लक्ष्मी का वाहन 
सरस्वती जी  हंसवाहिनी ,सबके कैसे कैसे वाहन 
घोटू 

 
 

बुधवार, 19 जून 2013

सूरज -दो कविताएँ

         
         सूरज-दो  कविताएँ 
                   1
         सूरज और हम 
होता सूरज लाल,प्रात जब निकला करता 
धीरे धीरे तेज प्रखर हो ऊपर   चढ़ता 
और साँझ,बुझते दीये सा पीला पड़ता 
देखो दिन भर मे वो कितने रंग बदलता 
सुबहो शाम ,उसे ढकने को आते बादल 
पर बादल को चीर ,सदा जाता आगे बढ़ 
उसकी ऊष्मा और ऊर्जा ,कायम रहती है 
सर्दी,गर्मी,बारिश,हर मौसम  रहती  है 
एसा ही होता अक्सर मानव जीवन मे 
बचपन मे है लाली और प्रखर यौवन मे 
और बुढ़ापे मे शीतल ,ढलने लगता  जब 
बादल परेशनियों के ,ढकते है जब ,तब 
सूरज जैसे चीर मुश्किलों को जो बढ़ते 
वो ही अपना नाम जगत मे रोशन करते 
                      2
            सूरज और बादल 
नीर से तुम भरे बादल,और सूरज चमकते हम 
हमारे ही तेज से ,उदधि गर्भ से पैदा  हुये  तुम 
क्षार सारा समंदर का ,छोड़ कर ,निर्मल बदन से 
तुम हवा के साथ ऊपर,उड़े थे स्वच्छंद  मन से 
देख निज मे नीर का ,इतना विपुल धन जब समाया 
तुम्हारे मन मे कलुषता का घना  अँधियार  छाया 
घुमुड़ नभ मे छा गए तुम,लगे गर्वित हो गरजने 
नीर धन ,मद चूर होकर,लगे बिजली से कड़कने 
और सारे गगन मे,स्वच्छंद   होकर तुम विचरने
अहम इतना बढ़ गया कि पिता को ही लगे ढकने 
पर समय और हवा रुख पर,ज़ोर कोई का न चलता 
आज या कल ,समय के संग,है हरेक बादल बरसता
नीर की बौछार बन कर ,समाओगे ,उदधि मे कल 
मै पिता ,फिर प्यार देकर ,उठाऊँगा ,बना बादल 
सृष्टि के आरंभ से ही,प्रकृती का चलता यही क्रम 
नीर से तुम भरे बादल ,और सूरज चमकते  हम 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 18 जून 2013

सागर तीरे

          

          सागर तीरे 
समुंदर के किनारे ,निर्वसन,लेटी धूप मे 
लालिमा पर कालिमा को ला रही निज रूप मे 
सूर्य की ऊर्जा तुम्हारे ,बदन मे छा  जाएगी 
रजत तन पर ताम्र आभा ,सुहानी आ जाएगी 
चोटियाँ उत्तंग शिखरों की सुहानी,मदभरी 
देख दीवाने हुये हम,मची दिल मे खलबली 
रजत रज पर ,देख बिखरी,रूप रस की बानगी 
हो गया पागल बहुत मन,छा  गई दीवानगी 
समुंदर से अधिक ऊंची ,उछालें ,मन भर रहा 
रूप का मधु रस पिये हम,हृदय  बरबस कर रहा 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

कवि की पीड़ा

          
            कवि की पीड़ा 
एक जमाना था हम रहते बहुत बिज़ी थे 
आज यहाँ,कल वहाँ तीसरे रोज कहीं थे 
कविसम्मेलन मे निशदिन भागा करते थे 
दिन मे चलते,रात रात जागा करते थे 
थे शौकीन लोग,कविता के कदरदान थे
बड़े बड़े आयोजन मे हम मेहमान थे 
रोज रोज तर माल मिला करता था खाने 
और सुरा भी मिल जाती दो घूंट  लगाने 
उस पर वाह वाह का टॉनिक मिल जाता था 
श्रोताओं की भीड़ देख ,दिल खिल जाता था 
और बाद मे पत्र पुष्प से  जेब भरे  हम 
महीने मे अच्छी ख़ासी होती थी इन्कम 
और होली पर इतने कविसम्मेलन थे होते 
जैसे श्राद्धों मे ,पंडित को मिलते  न्योते 
हर वरिष्ठ कवि का अपना ही ग्रुप होता था 
और ठेका लेकर के कविसम्मेलन होता था 
टाइम कब था,नई नई कविता गढ़ने का 
एक कविता हिट ,तो सदा वो ही पढ़ने  का
जब से टी.वी.पर कामेडी सर्कस  आया 
लोगों ने ,कविसम्मेलन करवाना भुलवाया 
भूले भटके कभी कभी मिलता आमंत्रण 
वाह वाह और भीड़ देखने तरसे है मन 
और बड़ी मुश्किल से घर का चले गुजारा 
वो दिन गए,फाकता  ,मियां करते मारा  
बंद हुये अखबार ,कविताए कम छपती 
और छपास की भी भड़ास अब नहीं निकलती 
बहुत कुलबुलाता,कविसम्मेलन का कीड़ा है 
मेरी नहीं,हरेक  कवि की  ये पीड़ा  है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 
 
  

बरसात

          
        
               
                 बरसात 
जब ना आती ,तो तरसाती,आती,रस बरसाती हो 
रसवन्ती निज बौछारों से ,जीवन को सरसाती हो 
मगर तुम्हारा अधिक प्यार भी,परेशानियाँ लाता है 
जब लगती है झड़ी प्यार की ,तो यह मन उकताता है 
संयम से जो रहे संतुलित ,वही सुहाता है मन को 
पत्नी कहूँ,प्रियतमा बोलूँ ,या बरसात  कहूँ  तुमको 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

सोमवार, 17 जून 2013

कथनी और करनी

  
      कथनी और करनी 
बड़े जोश से,ये कर देंगे,वो कर देंगे ,कहते थे 
और हमेशा ,बड़े बड़े ,जो  वादे  करते रहते थे 
हमने उन्हे चमन सौंपा था,उसकी रखवाली करने 
लेकिन बेच,फूल और फल वो,अपनी जेब लगे भरने 
हो जाता बर्बाद,सूखता,नूर चमन  सब खोता  है 
खाने लगती बाड़ खेत को,तब एसा ही होता है 
और उस पर ये सितम ,गर्व से,चीख चीख ये बतलाते 
जो कुछ उनने किया उसे ,अपनी उपलब्धी बतलाते 
हमको फिर सत्ता मे लाओ,सस्ता  अन्न तुम्हें देंगे 
पिछली बार खा लिया हमने,अब तुमको खाने देंगे 
बहुत दुखी कर,भरमाया है,इनके गोरखधंधों ने 
लूटा बहुत देश है मेरा,इन  मतलब  के अंधों ने 
अब हम को जो भी करना है,हम कर के दिखला देंगे 
जनता को धोखा देने का,फल तुमको सिखला देंगे 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डालर का इकोनोमिक्स

    
       डालर  का इकोनॉमिक्स 
जब चुनाव नजदीक आता है ,
डालर का भाव  बढ़ जाता है 
क्योंकि भ्रष्ट राज नेताओं का ,
डालरों मे जमा किया काला धन 
जब विदेशी बेंकों से निकाल कर ,
हवाले से जब हमारे देश मे आता है 
तो चुनाव मे खर्च करने को ,
ज्यादा रुपैया मिल जाता है 
घोटू 

बुढ़ापा

  

     बुढ़ापा- जीवन का संडे 
जीवन भर संधर्ष किया है ,गुजरें है तूफानो से ,
हम मे ऊर्जा भरी हुई है,ये न समझना  ठंडे  है 
दिखने मे बेजान काठ से,दुबले पतले लगते है,
अगर पड़े तो खाल उधेड़े ,हम तो एसे  डंडे  है 
हमको मत कमजोर समझना,देख हमारी काया को,
हमने दुनिया देखी,आते ,हमको सब हथकंडे  है 
ये जीवन,सप्ताह एक है,हमने छह दिन काम किया,
अब आराम बुढ़ापे मे है,ये  जीवन का संडे  है 
'घोटू '
 

फादर'स डे

            फादर'स  डे 
विदेशों का चलन आजकल ,
भारत मे भी बढ़ता जाता है 
एक साल मे एक बार ,
पिताजी का दिन भी आता है 
जिसे लोग फादर'स डे कह कर बुलाते है 
और अपने पिता को,हेप्पी फादर'स डे के,
कार्ड,तोहफे और शुभकामना संदेश भिजवाते है 
बहुत व्यस्त रहते हुये भी कुछ 
समय निकाल कर याद कर लेते है 
शुभकामना संदेश एस एम एस कर देते है 
कोई फोन पर बात करते   है,
कोई  उपहार या कोई फूल भिजवाता है 
और इस तरह बाप का कर्ज चुकाता है  
हमने जब ये बात अपने बेटे से बोली 
तो उसने बड़े गर्व से अपनी जुबान खोली 
कहा बच्चे साल मे कम से कम एक दिन तो,
फादर'स डे मना कर के,
अपने पिता का एहसान चुकाते है 
पर क्या आप कभी,
'सन'स डे' या'डाटर'स डे 'मनाते है ?
हमने कहा हमारा तो हर दिन ही ,
बच्चों का दिन हुआ करता है 
अब तुम्हें क्या बताएं ,
माँ बाप का दिल तो हमेशा,
अपने बच्चों की खुशी की दुआ करता है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

रविवार, 16 जून 2013

गुजरा हुआ जमाना

           गुजरा हुआ जमाना 
सूरज रोशन करता है दिन,चाँद चाँदनी बिखराता 
बहती सुंदर हवा सुहानी ,बादल  पानी  बरसाता 
ये सारे उपहार प्रकृति के ,देता है ऊपर वाला 
सब उपकार मुफ्त ,पैसे ना लेता है ऊपर वाला 
लेकिन हम सब दुनिया वाले जब थोड़ा कुछ करते है 
नहीं मुफ्त मे कुछ भी मिलता ,पैसे देना पड़ते है 
करे रात को घर रोशन तो बिजली का बिल है बढ़ता 
पानी की बोतल पीने को ,दस रुपया देना पड़ता 
और हवा के झोंके  ए सी ,कूलर ,पंखों से  आते 
एक तो मंहगे दाम और फिर है दूनी बिजली खाते 
जब ये सब उपकरण नहीं थे ,रात छतों पर  सोते थे 
ठंडी मस्त हवा के झोके ,बड़े सुहाने  होते थे 
मटकी और सुराही मे भर,पीते थे ठंडा पानी 
रोटी ,चटनी सब्जी खाते ,और मीठी सी गुडधानी
बड़ा मस्तमौला जीवन था ,ना थी चिंता कोई फिकर 
न थी आज सी भागदौड़ी और काम करना दिन भर 
बहुत तरक्की की पर खोया ,मन का चैन पुराना वो 
हमे याद आता है अक्सर ,गुजरा हुआ  जमाना  वो 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   

चढ़ावा

           चढ़ावा 
दुनिया भर को रोशन करता ,बिना कुछ पैसे लिये
ताल,कुवे,नदियां सब भरता ,बिना कुछ पैसे लिये 
मस्त हवा के झोंके लाता , बिना कुछ पैसे लिये 
धूप,चाँदनी से नहलाता  ,बिना कुछ  पैसे  लिये 
खेतों मे है अन्न उगाता ,बिना कुछ  पैसे  लिये
एक बीज से वृक्ष बनाता , बिना  कुछ,,पैसे  लिये 
 मन था उपकृत,एहसानों से,और मैंने  इसलिये
गया मंदिर ,उसके दर पर,  चढ़ा  कुछ  रुपए दिये

था बड़ा एहसानमंद  मै,उसे कहने शुक्रिया
एक डब्बा मिठाई का, चढ़ा  मंदिर मे दिया
कहा उसने खुश  रहो तुम,मेरा आशीर्वाद है
ये मिठाई तू ही खाले, ये मेरा  परशाद  है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बिजली

           
  कभी जाती हो चली और कभी आ जाती हो तुम 
 मुझसे आँख मिचौली करती ,बहुत तड़फाती हो तुम  
जब भी मै छूता तुझे ,तो झटका देती हो मुझे , 
दिलरुबा बोलूँ की या फिर ,कहूँ मै  बिजली तुझे 
'घोटू '

बुधवार, 12 जून 2013

घडी

            
ये घडी,
एक स्थान पर पड़ी 
सबसे टिक टिक  कहती रहती 
और खुद रहती,
 एक जगह पर टिक कर ,
लेकिन हरदम  चलती रहती 
जब तक इसमे बेटरी या सेल है 
तभी तक इसका खेल है 
आदमी की जिंदगी से ,
देखो कितना मेल है 
इसकी टिक  टिक ,आदमी की सांस जैसी ,
बेटरी सी आदमी की जान है 
जब तक बेटरी मे पावर है 
साँसो का आना जाना उसी पर निर्भर है 
बेटरी खतम,
घडी भी बंद,साँसे भी बंद 
घडी मे होते है तीन कांटे ,
सेकंड का काँटा ,बड़ी तेजी से चलता रहता है 
बचपन की तरह ,उछलता रहता है 
मिनिट का काँटा,
जवानी की तरह ,थोड़ा तेज तो है,
पर संभल  संभल कर चलता है 
और घंटे का कांटा ,
जैसे हो बुढ़ापा 
बाकी दोनों कांटो के चलने पर निर्भर 
बड़े आराम से ,धीरे धीरे ,
बढ़ाता है अपने कदम 
क्या पता ,कब घड़ी ,जाय थम 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

उतार चढाव

           उतार चढाव
     
उठता  है जो कोई तो फिर गिरता  भी कोई है,
                             डालर चढ़ा तो रुपैया   धडाम हो गया
मोदीजी की  पतंग जो ऊपर को उड़ गयी ,
                               अडवानी जी का थोड़ा  नीचा नाम हो गया
गुस्से में बौखला के उनने स्तीफा दिया ,
                                सपना पी  एम बनने का ,तमाम हो गया
मोहन ने ऐसी भागवत   है कान में पढी,
                               फिर  से  पुराना वो ही ताम  और झाम हो गया 
    मदन मोहन बाहेती'घोटू '    

मंगलवार, 11 जून 2013

बिल्लियों की लड़ाई में मज़े बन्दर लूटता --

 
              बिल्लियों की लड़ाई में मज़े बन्दर  लूटता

कह  रहा हूँ  बात ये सच ,नहीं बिलकुल  झूंठ है
बुजुर्गों को  दो तबज्जो ,वरना जाते     रूठ  है
उनकी इज्जत और उनका मान रखना चाहिये ,
वरना उनका दिल दुखी होता है,जाता टूट   है
लाभ उनके अनुभव का हमको लेना चाहिये ,
वर्ना घर के सदस्यों में ,जाती है पड़  फूट  है
दो अलग खेमो में बंट  जाता सकल परिवार है,
एक दूजे के विरोधी ,बन जाते दो  गुट  है
बिल्लियों की लडाई में मज़े बन्दर उठाता ,
और सारी रोटियां ,जाता मज़े से लूट है
मन की चाही  बहू ,बेटा लाया है ,स्वागत करो,
नयी पीड़ी को ज़रा तो देनी  पड़ती  छूट है
दौर तुम्हारा है गुजरा , हाथ से छूटी पकड़,
नहीं अच्छा ,छोड़ना घर ,और जाना रूठ है
रूठने और मनाने का ,खेल सारा छोड़ दो ,
सफलता तब मिलेगी जब ,सब के सब एकजुट है
कमान्डर बन करके उनका पथ प्रदर्शन कीजिये ,
मोरचे पर जोश से लड़ता  नया रंगरूट है
हो अगर मकसद बड़ा तो अहम् पड़ता त्यागना ,
बताओ ये बात मेरी ,सत्य है या  झूंठ है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '


सोमवार, 10 जून 2013

         जब पसीना गुलाब था 
          
वो दिन भी क्या थे ,जब कि पसीना गुलाब था 
हम भी जवान थे और तुममे भी शबाब था 
तुम्हारा प्यार   मदभरा  जामे-शराब था 
उस उम्र का हर एक लम्हा ,लाजबाब  था 
             बेसब्रे थे और बावले ,मगरूर बहुत थे
            और जवानी के नशे में हम चूर  बहुत थे 
            पर जोशे-जिन्दगी से हम भरपूर बहुत थे 
            लोगों की नज़र में हम नामाकूल  बहुत थे
  जब इन तिलों में तेल था ,वो दिन नहीं रहे 
  अरमान दिल के हमारे आंसू में  सब   बहे 
  अपने ही गये  छोड़ कर ,अब किससे क्या कहे 
  टूटा है दिल, उम्मीद के ,सारे  किले  ढहे 
            हमने था जिन्दगी  को बड़े चाव से जिया 
             आबे-हयात उनके लबों से था जब पिया 
               बढ़ती हुई उम्र ने है ऐसा सितम किया 
             वो दिन गए जब मारते थे ,फ़ाक़्ता मियां 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जिन्दगी बस ऐसे ही चलती है

 जिन्दगी  बस ऐसे ही चलती है 

शुरू शुरू में बड़ा चाव होता है 
मन में एक नया उत्साह होता है 
जीवन में छा जाते है नए रंग 
नए नए सपने,नई नई  उमंग 
और फिर धीरे धीरे ,रोज का चक्कर 
कभी कभी सुहाता,कभी बड़ा दुःख कर 
ढलती है जवानी और उमर है बढ़  जाती 
 इसी तरह जीने की ,आदत  पड़  जाती 
कभी कच्ची रहती,कभी दाल गलती 
जिन्दगी सारी ,बस ऐसे  ही चलती 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पथ्य

      
          पथ्य 
लूखी रोटी,सब्जी पतली 
चांवल लाल,दाल भी पतली 
और सलाद,मूली का गट्टा 
और साथ में फीका  मट्ठा 
डाक्टर ने जो बतलाया था 
कल मैंने वो ही खाया  था 
या बस अपना पेट भरा था 
सच मुझको कितना अखरा था 
एक तरफ पकवान,मिठाई 
देख देख नज़रें ललचाई 
मगर बनायी इनसे दूरी 
बीमारी की थी मजबूरी 
कई बार ये आता  जी में 
इतना सब कुछ दिया विधी ने 
सब इन्जोय करो,कहता  मन 
तो फिर क्यों है इतना बंधन 
खाना  चाहें,खा न सके हम 
कब तक खुद को रोकेंगा मन 
हम सब है खाने को जीते 
या जीने को खाते,पीते 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

एक ही थैली के चट्टे बट्टे

           एक ही थैली के चट्टे  बट्टे 
        
खुद है गंदे ,और हमको   साफ़ करने आ गये 
देखो बगुले,भक्त बन कर,जाप करने आ गये 
कोर्ट में लंबित है जिनके ,गुनाहों का मामला ,
अब तो मुजरिम भी यहाँ,इन्साफ करने आ गये 
भले मंहगाई बढे और सारी जनता हो दुखी ,
भाड़ में सब जाये ,खुद का लाभ करने आ गये 
यूं ही सब बदहाल है ,टेक्सों के बढ़ते  बोझ से,
हमको फिर से नंगा ये चुपचाप करने  आ गये 
रोज बढ़ती कीमतों से,फट गया जो दूध  है,
उसके रसगुल्ले बना ये  साफ़ करने  आ गये 
एक ही थैली के चट्टे बट्टे,मतलब साधने ,
कौरवों से पांडव ,मिलाप करने  आ गये 
पाँव लटके कब्र में है,मगर सत्ता पर नज़र,
बरसों से  देखा ,वो पूरा ख्वाब करने आ गये 
बहुत हमको रुलाया,अब तो बकश दो तुम हमें,
सता करके फिर हमें ,क्यों पाप करने आ गये 
बहुत झेला हमने 'घोटू',वोट हमसे मांग कर ,
फिर से शर्मिन्दा हमें ,क्यों आप करने आ गये 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 9 जून 2013

प्रणय निवेदन-एक डाक्टरनी से


        प्रणय निवेदन-एक डाक्टरनी से 
    
     
दर पे तेरे आये है हम ,तुझसे कहने के लिये 
क्या तेरे दिल में जगह है ,मेरे रहने के लिये 
महबूबा डाक्टर थी,हंस के ये बोली डीयर 
मेरा दिल तो छोटा सा है,एक मुट्ठी बराबर 
और तुम तो छह फुटे हो,समा कैसे पाओगे 
तोड़ दोगे ,दिल मेरा, यदि उसमे बसने आओगे 
हमने बोल ठीक है,एहसान इतना कीजिये 
दिल नहीं तो कम से कम ,दिमाग में रख लीजिये 
'क्या मेरा दिमाग खाली'खफा हो उसने कहा 
डाक्टरी पढ़ ली तो फिर दिमाग क्या खाली रहा 
कहा हमने चाहते हम ,कहना दिल की बात है 
तुम मेरी  लख्ते -जिगर,ये प्यार के जज्बात है  
कहा उसने जिगर फिर तो तुम्हारा बेकार है 
टेस्ट लीवर का कराने की तुम्हे  दरकार है 
हमने बोल प्यार जतलाने का ये अंदाज है 
मेरी हर धड़कन में डीयर ,बस तुम्हारा वास है 
धडकता दिल,सांस से जब ,आती जाती है हवा 
मै हवा ना ,हकीकत हूँ,पलट कर उसने  कहा 
हमने बोला ,ये हमारे इश्क का  पैगाम  है 
मेरे खूं के हरेक कतरे में तुम्हारा  नाम है 
कहा उसने ,सीरियस ये बात है,कहते हो क्या 
टेस्ट ब्लड का कराना ,अब तो जरूरी हो गया 
हमने बोला  ,बस करो,मत झाड़ो अपनी डाक्टरी 
प्यार का इकरार करदो,झुका नज़रे मदभरी 
हंस वो बोली,बात दिल की,मेरे पापा से कहो 
हमारी शादी करादे ,साथ फिर मेरे   रहो 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

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