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रविवार, 24 मई 2020

मुक्तक

सपन मन में मिलन के सब  कुलबुलाते रह गये
साथ आनेवाले थे वो ,आते आते  रह गये
हमारी मख्खन डली को ,एक कौवा ले गया ,
और हम अफ़सोस में ,दिल को जलाते रह गये

घोटू 
बस चला यूं ही किये

याद में तेरी हम दिल को ,बस जला ,यूं ही किये
दाल अपनी गल न पायी ,बस गला यूं ही किये
लोग चखते रहे सब ,हमको मिला ना एक भी ,
प्यार से ,प्यारे पकोड़े ,हम तलां यूं ही किये
पता था कि मंजिले मक़सूद पाना है कठिन ,
प्रेम की टेढ़ी डगर पर ,हम चलां यूं ही किये
जानते अच्छी तरह से ,तुम पराया माल हो ,
मिल ही जाओ भाग्य से ,मन को छलां यूं ही किये
हमने शबरी की तरह चख ,मीठे फल तुमको दिये ,
जूंठे फल क्यों दिये हमको तुम गिला यूं ही किये  
चाहते थे आम मीठे , करेले की बेल पर ,
हो गये मायूस ,हाथों को मला यूं ही किये

घोटू 
मुश्किल से ही होती है

उमड़े यौवन की रखवाली ,मुश्किल से ही होती है
झुकी हुई नज़रें मतवाली ,मुश्किल से ही होती है
जिसके मन में ,सदा अँधेरा ,मावस का पसरा रहता ,
उसमें खुशियों की दीवाली ,मुश्किल से ही होती है
जहाँ महकते फूल प्यार के ,और कलियाँ मुस्काती हो ,
बहुत सुरक्षित ,वो फुलवारी ,मुश्किल से ही होती है
फटे हाल पर बजा बांसुरी सदा चैन की ,खुश रहती ,
ऐसी सुखी ,शाही कंगाली ,मुश्किल से ही होती है
अच्छे साज औ' साजिंदे हो ,और सुरीले गायक हो ,
बजे न ताली ,तो कव्वाली ,मुश्किल से ही होती है
लाख लाद दो गहनों से और ,ढेरों साड़ी दिलवा दो,
लेकिन मेहरबान घरवाली ,मुश्किल से ही होती है
अच्छे दिन के इन्तजार में हमने बरसों बिता दिये
सुस्त सभी, 'घोटू ' खुशहाली ,मुश्किल से ही होती है  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
कोरोना की देन

क्या बतायें ,कोरोना ने ,हमको है क्या क्या दिया
मुंह पे पट्टी बाँध कर के ,बोलना  सिखला दिया
अपनों से भी ,बना कर के ,रखो दो गज दूरियां ,
पाठ हमको  मोहब्बत का, इस तरह उल्टा दिया
सैर अक्सर विदेशों की ,करते थे गर्मी में हम ,
लॉकडाउन करके घर के अंदर ही बिठला दिया
मेहरियों को घर में घुसने पर लगा प्रतिबंध जब ,
झाड़ू पोंछा ,रोटियां भी बेलना सिखला दिया
रामायण और महाभारत के पुराने सीरियल  ,
दिखला त्रेता और द्वापर युग हमें पहुंचा दिया
साठ दिन,चौबीसों घंटे मियां बीबी संग रहे ,
किस तरह ,एक दूसरे को,झेलना सिखला दिया  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '


वाइरस
 १
मुक्तक
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मैं रसिक हृदय ,बचपन से ही ,शौक़ीन बहुत हूँ अमरस का
जब हुआ युवा ,तो नज़रों से ,करता था पान रूप रस का
लग गया प्रेम रस का चस्का ,पाया जब स्वाद अधर रस का
सारा रस प्रेम नदारद अब  ,डर कोरोना के वाइरस का

सवैया
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बचपन से अब तक ,आम चूसे छक छक ,
अमरस को स्वाद अब भी ,मेरे मन भाये है  
जवानी में रूप रस को पान को लग्यो चस्को
रसवन्ती कन्यायें जब ,रूपरस लुटाये है
स्वाद अधर रस को चख ,प्रेमरस डूब गयो ,
रसिक हृदय ,रस प्रेमी ,'घोटू ' कहलाये है
एक रस एसो  आयो ,सारे रस  भुलवायो ,
कोरोना के वाइरस से ,सब ही घबराये है

गुणी पाठकों ,,
भाव वही ,शब्द वही पर अलग अलग छंदों में
लिखा है -एक मुक्तक है दूसरा सवैया है -
आपको कौनसा अच्छा लगा ,कृपया प्रतिक्रिया दें
धन्यवाद
आपका
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '  

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