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रविवार, 19 अप्रैल 2020

मुस्कराना सीख लो

ख़ुशी चेहरे पर बहुत आ जायेगी
जिंदगी में  बहारें  छा जायेगी
मिलो ,सबका प्यार पाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना  सीखलो

दिल में जब इंसानियत जग जायेगी
मन की सब मनहूसियत भाग जाएगी
बस किसी के काम आना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो

किसी की मुश्किल में उसका साथ दो
सहारे को बढ़ा अपना हाथ दो
गिरते को ,ऊपर उठाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो

किसी का गम अगर कुछ कम कर सको
किसी के जीवन में खुशिया भर सको
फर्ज  बस  अपना निभाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीख लो

सावधानी हटी ,दुर्घटना घटी
जिंदगी फिर मुश्किलों से ही कटी
ठीक से गाडी चलाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो

नहीं जलना ,जलन से  और डाह से
जलो बन कर दीप तुम उत्साह से
तम हटाकर ,जगमगाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
हम कैसे समय बिताते है

चालिस दिन के लॉकडाउन में ,हम कैसे समय बिताते है
कुछ घूँट गमो के पीते है ,कुछ पत्नी की  डाटें खाते है

इस कोरोना की दहशत से ,सबकी सिट्टी पिट्टी  गुम है
हर मुंह पर पट्टी पड़ी हुई ,हर चेहरा थोड़ा गुमसुम  है
यह चालीस दिन की घरबंदी ,लायी है इतना परिवर्तन
जो हाथ किया करते दस्तखत ,वो हाथ मांजते अब बर्तन
सड़कों पर सन्नाटा छाया ,बंद आना जाना ,दुकाने
तुम घर घुस  बैठो ,काम करो ,दिन में सोवो ,खूँटी ताने
हम जोर जोर खर्राटे भर ,पत्नी को जरा सताते है
चालीस दिन के लॉकडाउन में ,हम कैसे समय बिताते है

हम आलू टिक्की भूल गए ,हम चाट समोसे भूल गए
वो गरम जलेबी ,रसगुल्ले ,इडली और डोसे  भूल गए
ना 'डोमिनो 'ना 'मेकडोनाल्ड 'ना बिकानेर ,ना हल्दीराम
पत्नी के हाथों पका हुआ ,खाना कहते है सुबह शाम
सुनते भी है हम जली कटी ,और जलीकटी पड़ती खानी
और वो भी तारीफ कर वरना ,बंद हो जाता हुक्कापानी
हड़ताल न करदे बीबीजी ,इस डर से हम घबराते है
चालीस दिन के लॉक डाउन में, हम कैसे समय बिताते है  

पहले पत्नीजी मेहरी से ,डेली ही  किचकिच करती थी
पर काम छोड़ ना चली जाय ,थोड़ा सा मन में डरती थी
महरी वाला सब कामकाज ,मजबूरी में करते हम है
महरी सी किचकिच की आदत ,पत्नी में अब भी कायम है
वह रोज हमारे कामों में ,कुछ नुक़्स निकाला करती है
मालूम है घर ना छोड़ेंगे ,इसलिए न बिलकुल डरती है
अपने बिगड़े हालातों पर ,बस तरस हम खुद ही खाते है
चालीस दिन के 'लॉकडाउन 'में ,हम कैसे समय बिताते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

क्या कभी आपने सोचा था

क्या कभी आपने सोचा था ,कि ऐसे दिन भी आएंगे
जब हम थक कर सोनेवाले ,सोते सोते थक जाएंगे
हफ्ते भर करते काम तभी सन्डे की छुट्टी पाते थे
करते आराम ,बाल बच्चों संग ,अपना समय बिताते थे
था प्यार उमड़ता पत्नी का ,खाना मिलता था स्पेशल
था वक़्त गुजरता मस्ती में ,दिन में भी सो लेते जी भर
मिट जाती थी सारी थकान ,हम मन में हरषा करते थे
बस इसीलिये हम सन्डे की ,छुट्टी को तरसा करते थे
और फिर ऐसे भी दिन आये ,जब कहर करोना का टूटा
मिल गयी छुट्टियां इक्कीस दिन ,पर चैन हमारा था लूटा
सब बंद  बाज़ार होटलें दफ्तर ,आना जाना बंद हुआ
नौकर चाकर , ,कामवालियां ,आने पर प्रतिबंध हुआ
अब घर का सब झाड़ू पोंछा ,और साफ़ सफाई गले पड़ी
तुम स्वयं पका ,बरतन मांजो ,होगयी मुश्किलें रोज खड़ी
सब्जी काटो ,आटा गूँधो ,और रोटी गोल बेलना फिर
थोड़े दिन तो एडजस्ट किया ,पर मुश्किल हुआ झेलना फिर
सब प्यार लुटाते जब एक दिन छुट्टी मिलती थी हफ्ते में
अब झगड़ा होता रोज रोज ,बढ़ती जाती तू तू ,मैं मैं
हर संडे अब फन डे न रहा अब पहले जैसी मौज नहीं
फरमाइश पत्नी और बच्चों की ,पूरी हो सकती रोज नहीं
है कभी कभी का मज़ा और ,है कभी कभी ही सुखदायक
इतने दिन तक तो निभा लिया ,हमने जैसे तैसे अबतक
है हमे कोरोना से लड़ना ,हर मुश्किल सर पर ले लेंगे
इक्कीस दिन तो है झेल लिया ,अब चालीस दिन भी झेलेंगे


मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
कोरनवा ने हाय राम

कोरनवा ने हाय राम ,बड़ा  दुःख दीना
मियां बीबी बच्चे सबको ,घर में बंद कर दीना
झाड़ू पोंछा ,बरतन मांजो ,महरी का सुख छीना
होटल बस बाज़ार बंद सब ,मुश्किल खाना पीना
पतिदेव फरमाइश करते ,करते काम कभी ना
दहशत मारे,सब बेचारे ,ऐसा ये रोग कमीना
इक्कीस दिन तो झेल लिए अब चालीस दिन कर दीना

घोटू  
कोरोना और वनवास

हे राम तुम्हारी कथा ,व्यथा से बहुत रुला देती हमको
जिस दिन मिलना था राजपाट,उस दिन वनवास मिला तुमको
पर काश तुम्हे वनवास नहीं , होती कुछ सजा ,कैद जैसी
 चौदह वर्षों ,बंध  चारदीवारी में ,होजाती  ऐसी की तैसी
मैं खुद इस दहशत से गुजरा हूँ ,मैंने ये पीड़ा  भोगी  है
इस हालत में अच्छा खासा ,इंसां बन जाता रोगी है
कोरोना की विपदा कारण जब हुई देश की थी बंदी
चालीस दिन तक ,घर से बाहर ,ना निकलो,यह थी पाबंदी
मरघट सी शान्ति  बाज़ारों में ,ना हलचल थी ना  चहलपहल
खामोश अकेले तन्हाई में  ,रो रो कर कटता था हर पल
मैंने रह चारदीवारी में ,महसूस किया ,घुट घुट ,तिल तिल
है आसां वनवास झेलना ,पर घरवास झेलना मुश्किल

यह वनवास नहीं ,अपितु था ,सुन्दर मौका देश भ्र्मण का  
तरह तरह के लोगों के संग ,मिलना जुलना ,रहन सहन का
खुली हवा में साँसें लेना ,नदियों का निर्मल जल पीना
पंछी सा उन्मुक्त चहकना ,अपनी मन मर्जी  से जीना
ना पाबंदी ,ना डर  कोई ,लोकलाज का ,राजधर्म का
स्वविवेक से निर्णय लेना ,करना जो मन कहे ,कर्म का  
कभी बेर शबरी के खाना  ऋषि मुनियों के दर्शन पाना ,
बिन वनवास बड़ा मुश्किल था ,भक्त कोई हनुमत सा पाना
दुष्ट  अहंकारी रावण का ,कर पाए तुम नाश  राम जी
अच्छा हुआ ,केकैयी माँ ने ,दिया तुम्हे वनवास राम जी
वर्ना अगर कैद जो घर में ,रहते ,टूट टूट जाता दिल
है आसां वनवास झेलना ,पर घरवास बड़ा ही मुश्किल

याद करो परमार्थ ,पार्थ की ,थी  पुरुषार्थ भरी वह गाथा  
 राज्य हस्तिनापुर पाने को ,महाभारत का युद्ध हुआ था
पांच पांडव एक तरफ थे ,और सामने सौ सौ कौरव
कुटिल शकुनि ने ध्रुतक्रीड़ा में जीता उनका सब गौरव
माँगा आधा राज्य ,मिला वनवास ,भटकने उनको वन वन
जीत स्वयम्बर ,अर्जुन लाया ,बनी द्रोपदी ,सबकी दुल्हन
गर वनवास नहीं जाते और यूँही मांगते रहते निज हक़
नहीं कोई उनकी कुछ सुनता ,सब प्रयत्न हो जाते नाहक
यह वनवास काम में आया ,किया भ्र्मण और मित्र बनाये
हुआ युद्ध जब महाभारत का,तब वो सभी  साथ में आये
कृपा कृष्ण की ,जीते पांडव ,राज्य चलाया ,सबने हिलमिल
है आसां वनवास झेलना ,पर घरवास बड़ा ही मुश्किल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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