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सोमवार, 13 अगस्त 2018

मैं गधे का गधा ही रहा 

प्रियतमे तुम बनी ,जब से अर्धांगिनी ,
      मैं हुआ आधा ,तुम चौगुनी बन  गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
         गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 

मैं तो कड़वा,हठीला रहा नीम ही,
     जिसकी पत्ती ,निबोली में कड़वास है 
पेड़ चन्दन का तुम बन गयी हो प्रिये ,
  जिसके कण कण में खुशबू है उच्छवास है 
मैं तो पायल सा खाता रहा ठोकरें ,
    तुम कमर से लिपट ,करघनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
       गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
 
मैं था गहरा कुवा,प्यास जिसको लगी ,
     खींच कर मुश्किलों से था पानी पिया 
तुम नदी सी बही ,नित निखरती गयी ,
     सबको सिंचित किया ,नीर जी भर दिया  
मैं तो कांव कांव, कौवे सा करता रहा ,
            तुमने मोती चुगे ,हंसिनी बन  गयी    
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
        गाय थी तुम प्रिये, शेरनी बन गयी
 
मैं तो रोता रहा,बोझा ढोता रहा ,
         बाल सर के उड़े, मैंने उफ़ ना करी 
तुम उड़ाती रही,सारी 'इनकम' मेरी,
        और उड़ती रही,सज संवर,बन परी   
मैं फटे बांस सा ,बेसुरा  ही रहा,
          बांसुरी तुम मधुर रागिनी बन गयी
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
  
फ्यूज ऐसा अकल का उड़ाया मेरी ,
        तुम सदा मुझको कन्फ्यूज करती रही 
मैं कठपुतली बन  नाचता ही रहा ,
          मनमुताबिक मुझे यूज करती रही
मैं तो कुढ़ता रहा और सिकुड़ता रहा ,
          तुम फूली,फली,हस्थिनी  बन गयी 
मैं गधा था गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
   
प्यार का ऐसा चस्का लगाया मुझे,
        चाह में जिसकी ,मैं हो गया बावला 
अपना जादू चला ,तुमने ऐसा छला ,
           उम्र भर नाचता मैं रहा मनचला 
मैं तो उबली सी सब्जी सा फीका रहा ,
        प्रियतमे दाल तुम माखनी बन गयी 
 मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन  गयी 
         
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 6 अगस्त 2018

बचपन के स्कूल-टीचर की मार 

बचपन की पुरानी यादें ,
जब मेरे मानसपटल पर दौड़ती है 
तो मास्टरजी की मार और टीचरों की डाट ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती है  
जिन्होंने मुझे डाट डाट कर ढीठ बना दिया था 
आज की परिस्तिथियों के अनुकूल ,
एकदम ठीक बना दिया था 
इसी शिक्षण के कारण आज मैं ,
बिना सेंटीमेंटल हुए ,
अपने बॉस की डाट सुन पाता हूँ 
और जब बीबी डाटती है ,
तो भी मुस्कराता हूँ 
बचपन में स्कूल की शैतानियों में 
आता था बड़ा मज़ा 
पर उसके बाद हमें झेलनी पड़ती थी 
मास्टरजी की सजा 
और इन सजाओं के होते थे अनेक प्रकार 
पर सबसे खतरनाक होती थी ,
मास्टरजी की छड़ी की मार 
हम काँप जाते थे जब वो कहते थे हाथ बढ़ाओ 
अपनी गलती पर दो बेंते खाओ 
और उनकी छड़ी की मार से ,
हम सहम सहम जाते थे 
अलग अलग अध्यापक अलग अलग ढंग से ,
अपनी अपनी सजा सुनाते थे 
एक पूछते थे कल का पाठ सुनाओ 
नहीं बता पाये तो बेंच पर खड़े हो जाओ 
हम बेहया से बेंच पर खड़े खड़े मुस्कराते थे 
और मास्टर जी ने देख लिया तो 
कक्षा से निकाल दिए जाते थे 
इस सजा का हम बड़ा मजा उठाते थे मुस्कराकर 
जब तक दूसरा पीरियड आता ,
स्कूल के बाहर जा ,
चले आते थे चने की चाट खाकर 
एक टीचर ,दो उंगुलियों के बीच ,
पेंसिल रख कर उंगुलियों से दबाती थी 
सच बड़ा दर्द होता था ,चीख निकल जाती थी 
और जब हम क्लास में शोर कर,चुप नहीं बैठते थे 
तो इतिहास वाले अध्यापकजी ,हमारे कान ऐंठते थे 
कोई टीचर जब हमें क्लास में ,
किसी से बाते करते हुए पाते थे 
तो दोनों को बेंच पर खड़ा करवा कर ,
एक दुसरे के कान खिंचवाते थे 
गणित वाले टीचर गलती होने पर ,
गालों  पर चपत मारते थे 
अपने घर की भड़ास ,
स्कूल के बच्चों पर निकालते थे 
हिंदी वाले पंडितजी शुद्ध शाकाहारी थे 
पर जब वो कुपित हो जाते थे 
तो सजा 'नॉनवेजिटेरियन ' सुनाते  थे 
और हमें क्लास में मुर्गा बनाते थे 
कोई  एक फुटे वाली स्केल से मारता था ,
जब हमें शरारत करते हुए देखता था 
कोई पीठ पर धौल मारता था 
तो कोई जोर से चाक फेकता था 
उन दिनों 'छड़ी पड़े छम छम 
,विद्या आवे घम घम 'वाला कल्चर था 
सच ,उसमे बड़ा असर था 
मार के डर  से बच्चो में सुधार होता था 
ये सजा नहीं ,मास्टरजी का प्यार होता था 
उन सजाओं ने हमें जीवन में ,
मुसीबत झेलने का पाठ पढ़ाया है 
आज के जीवन में 'स्ट्रगल 'करना सिखाया है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

रविवार, 5 अगस्त 2018

चरण महिमा 

छुवो तो चरण कमल ,धोवो तो चरणामृत ,
चरणों की शरणो में लोग बहुत पड़ते है 
रोंदो तो पाँव तले ,मंजिल पर पाँव चढ़े ,
मुश्किल तब ,जब कांटे ,पांवों में गढ़ते है 
पैर अगर भारी है ,तो समझो खुशखबरी ,
पैर जमीं पर न पड़े ,जब चढ़ता यौवन है 
पैर झुके ,दबे पाँव ,आगमन बुढ़ापे का ,
बोझ खुदका सहने का ,नहीं बचता दमखम है 
चोर चले दबे पाँव ,जूतों में दबे  पाँव ,
थके पाँव  दबवा लो ,राहत दिलवाते है 
चलते तो चार कदम ,साथ चलो मिला कदम ,
खींचों तो टाँगे है ,मारो तो  लाते  है 
चार पैर कुर्सी के ,चार पैर का पलंग ,
बैठ या सो इन पर ,उमर गुजर जाती है 
अर्ध पुरुष दोपाया ,चौपाया बन जाता ,
शादी कर जीवन में ,अर्धांगिनी  आती है 
कोई के पाँव फूल ,जाते है मुश्किल में ,
कोई के पांवो में  बैठता शनीचर  है 
तो कोई पाँव पकड़ ,पाँव  पसारा करता ,
कोई घूमता रहता ,पांवों में चक्कर है 
पैर लड़खड़ाते कुछ ,पैर फिसल जाते कुछ ,
फूंक फूंक हरेक कदम ,समझदार रखते है 
 बैठता कोई है ,पाँव पर पाँव धरे 
कोई पाँव सर पर रख ,इधर उधर भगते है 
कोई खड़ा हो जाता ,जब पावों पर अपने ,
परिवार अपना वो ,तब ही बसाता है 
कोई के पैरों में लगती जब मेंहदी है 
 मुश्किल से इधर उधर,वो आता जाता है  
कोई के पैरों में ,बंधी बेड़ियाँ रहती ,
कोई के पैरों में घुँघरू है ,पायल है 
पैर ठुमक कर चलते ,पैर नृत्य करते है ,
मानव के जीवन में ,पैरों का संबल है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
तोड़ फोड़ 

कभी उछाले मार उदधि तोड़े मर्यादा 
तोड़ फोड़ पर कभी हवा होती आमादा 
तोड़ सभी तटबंध ,कभी सरिता बहती है 
तोड़ फोड़ तो जीवन में चलती रहती  है 
टूट  दूध के दांत पुनः फिर आ जाते है 
किन्तु बुढ़ापे में फिर टूट टूट जाते है 
रोज टूटते बाल  ,आप जब करते कंघी 
वृद्धावस्था आई,खोपड़ी होती  नंगी 
टूट डाल से फूल,बनाते सुन्दर माला 
टूट वृक्ष से फल भी देते  स्वाद निराला 
अपना कोई रूठ अगर जाता जीवन में 
तो जाता दिल टूट ,दर्द होता है मन में 
टूटा धागा अगर प्रेम का ,गाँठ पड़ेगी 
टूट जायेगे रिश्ते यदि जो बात बढ़ेगी 
साथ आपके अपनों का जब छूटा करता 
आसमान में कोई सितारा टूटा  करता 
किसी सुहागन से  किस्मत जब उसकी रूठे 
बुझ जाते अरमान,हाथ की चूड़ी टूटे 
टूट टूट कर भरी हुई है माँ में ममता 
नेता नहीं निभाते वादा ,टूटे जनता 
राजनीती में तोड़फोड़ होती  है हरदम 
पी मौसम्बी जूस ,तोड़ते नेता अनशन 
टूट आइना ,टुकड़े टुकड़े हो जाता है 
हर टुकड़े में पूरा अक्स नज़र आता है 
रूढ़िवाद को तोड़ रही है पीढ़ी नूतन 
मिलते प्रेमी युगल तोड़ कर सारे बंधन 
भाव टूटते है जब तो शेयर बाज़ार टूटता 
जब ज्यादा बढ़ जाता है तो परिवार टूटता 
होती गलतफहमियां है तो प्यार टूटता 
सांस टूटती है तो हमसे  संसार छूटता 
पिया मिलन की एक विरहन की सांस न टूटे 
कभी किसी का तुम पर से विश्वास न टूटे 
टूट  फूट घर की सम्भले है  ,रखरखाव से 
टूट  फूट जीवन की संवरे ,प्रेम भाव से 

घोटू 

आस बरसात की 

हुई व्याकुल धरा ग्रीष्म के त्रास से 
देखती थी गगन को बड़ी आस  से 
मित्र बादल ने जल सी भरी अंजुली 
सोचा बरसा दूँ शीतलता ,राहत भरी 
चाह उसकी अधूरी मगर रह गयी 
आयी सौतन हवा ,खींच संग ले गयी 
और आकाश सब देखता  ये रहा 
न कुछ इससे कहा ,न कुछ उससे कहा 
छेड़खानी ये आपस में चलती रही 
तप्त धरती अगन में तड़फती  रही 
लाख बादल घिरे कौंधी और बिजलियाँ 
प्यासी धरती का जलता रहा पर जिया 

घोटू 

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