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गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

मनचला दिल  

मेरे दोस्तों मेरा दिल मनचला है 
कब किसपे फिसले पता ना चला है 
बाहर से दिखता, बड़ा ही भला है  
कई नाज़नीनों को इसने छला है 
लड़कियां पटाने की आती कला है 
बड़ा ही कलाकार ,है ये दीवाना 
दिल लूटता है ,ये डाकू  सयाना 
नहीं भूल कर इसके चंगुल में आना 
बहुत जानता ,रूठना और मनाना 
भरोसा न करना ,ये तो दोगला है 
लड़कियाँ  पटाने की आती कला  है 
दिखाया हमेशा ,चमत्कार इसने 
जी भर लुटाया ,सदा प्यार इसने 
मानी किसी से भी ना हार  इसने 
किया अपने सपनो को साकार इसने 
बड़े नाज़ नखरों से ,ये तो पला है 
लड़कियाँ  पटाने की आती  कला है 
दिखता तो सीधा सा नादान है ये 
बड़ा ही मगर एक शैतान है ये 
सताता है करता ,परेशान है ये 
आशिक तबियत का इंसान है ये 
किसी की न सुनता,ये  दिलजला है 
लड़कियाँ  पटाने की आती कला है 

घोटू 

 

दुखी बाप की अरदास 

हे सुत ,मुझे अगन मत देना 
बहुत सताया है जीते जी ,मरने पर भी ,ना छोड़ोगे 
गर्म चिता में ,बांस मार कर ,तुम मेरा कपाल फोड़ोगे 
मृत्यु बाद भी ,इस काया को ,फिर तुम वही जलन मत देना 
हे सुत ,मुझे अगन मत देना 
अश्रु नीर की गंगा जमुना ,बहुत बहाई ,पीड़ित मन ने 
जीते जी कर दिया विसर्जित ,तुमने दुःख देकर जीवन में 
मेऋ  अस्थि के अवशेषों को,गंगा में तर्पण मत देना 
हे सुत ,मुझे अगन मत देना 
बहुत मुझे अवसाद दिए है ,नहीं पेट भर कभी खिलाया 
कभी नहीं ,मुझको मनचाहा ,भोजन दिया ,बहुत तरसाया 
श्राद्धकर्म कर ,तृप्त कराने ,ब्राह्मण को भोजन मत देना 
हे सुत ,मुझे अगन मत देना 

घोटू 
मेरी अर्धांगिनी 

जिसने बसाई मेरे दिल की बस्ती 
जो ले के आई है जीवन में मस्ती 
महकाया जीवन का गुलजार जिसने 
बरसाया जी भर के है प्यार जिसने 
दी गर्मी में जिसने ,पहाड़ों की ठंडक 
सर्दी में बन कर रजाई लिया  ढक 
जिसने बनाया, हर मौसम बसंती 
जो है मेरे दिल और गृहस्थी की हस्ती 
जो चंचल चपल है कभी तितलियों सी
कड़कती गरजती कभी बिजलियों सी 
चलाती है घर की जो गाड़ी ,वो इंजन 
खिलाती है हमको ,बनाकर के व्यंजन 
मेरा ख्याल रखती ,मुझे प्यार करती 
अगर रूठ जाता  तो मनुहार करती 
महोब्बत का जिसमे समंदर भरा है 
सज कर, संवर कर ,लगे अप्सरा है 
वो कोमल हृदय है ,वो ममता की मूरत 
भली जिसकी सीरत ,भली जिसकी सूरत 
वो ही अन्नपूर्णा है ,वो गृहलक्ष्मी है 
 मनोरम बनी है और दिल में रमी है 
वो देवी करू रोज जिसका मैं पूजन 
बिना जिसके लगता ,बड़ा सूना जीवन 
जिसने संवारी ,मेरी जिंदगी  है 
वो पूजा है मेरी ,मेरी बंदगी है 
मेरी पथप्रदर्शक ,सलाहकार है जो 
इस जीवन की नैया की पतवार है जो 
मेरा प्यार है वो ,मेरी वो मोहब्बत 
मेरे दिल की दौलत है जिसकी बदौलत 
है सबसे निराली ,बहुत खूब है वो 
मेरी दिलरुबा ,मेरी महबूब है वो 
जो जीवन में मेरे ,लाई रौशनी है 
वो पत्नी ,प्रिया, मेरी अर्धांगिनी  है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
तेरा  सुमिरन 

जब भी मुझ पर आयी मुसीबत ,परेशनियों ने आ घेरा 
जब विपदा के बादल छाये ,मैंने नाम लिया बस तेरा 
सच्चे मन से किया सुमिरन,व्याकुल होकर,तुझे पुकारा 
तूने कृपा दृष्टि बरसाई ,हर संकट से मुझे उबारा 
मेरी तुझमे प्रबल आस्था ,हरदम बनी सहारा मेरा 
तेरी रहमत बनी रौशनी ,राह दिखाई ,मिटा अँधेरा 
सदा ख्याल रखता बच्चों का ,परमपिता,परवरदिगार तू 
भगवान अपने सब बंदों पर ,बरसाता ही रहा प्यार तू 
बसा हुआ तू रोम रोम में,सांस सांस में ,मेरे दिल में 
तुझे पता है ,पास तेरे ही ,आएंगे हम ,हर मुश्किल में 
तो फिर कोई मुसीबत को ,पास फटकने ही देता तू 
राह दिखाना तुझको फिर क्यों ,हमें भटकने ही देता तू 
शायद इसीलिए ना सुख में ,तेरा सुमिरण ,याद न आता
इसीलिए तू ,दुःख दे देकर ,शायद अपनी याद दिलाता 
हम नादान ,दिये तेरे सुख ,पाकर तुझे ,भूल जाते है 
इतने जाते डूब ख़ुशी में ,नाम तेरा ही, बिसराते है  
क्या दुःख आना आवश्यक है भगवन तेरी याद दिलाने 
हे प्रभु सुख में ,तेरा सुमरण ,नहीं दुखों को,देगा आने 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
आशिकी और हक़ीक़त 

आशिक़ी के कई किस्से ,हमने लोगों के सुने है 
इसलिए ही इस कदर से ,हम जले है और भुने है 
जिससे पूछो,कहता उसने ,मौज मारी जवानी में 
किस तरह से मोड़ कितने ,आये उनकी कहानी में 
लड़कियां कितनी पटाई ,कितनो के संग आशिक़ी की 
कितनो ने दिल तोडा उनका,कितनो ने नाराजगी की 
कितनो के संग मस्तियाँ ली,कितनो के संग फायर,घूमे 
गले कितनो से लिपट कर ,कितनो के  है  गाल चूमे 
सुनता हूँ जब भी कभी मैं ,दोस्तों की  दास्ताने 
मेरा दिल धिक्कारता है और देता मुझे ताने 
अरे बौड़म ,क्यों न तूने ,जवानी का  मज़ा लूटा 
प्यार का गुब्बार कोई ,क्यों न तेरे दिल में फूटा 
पढाई में व्यस्त रह कर ,नहीं देखे कोई भी रंग  
काट दी तूने जवानी ,किताबों और कापियों संग 
करता हूँ अफ़सोस मैं भी ,अपने दिल को क्या दूँ उत्तर 
मन में पश्चाताप रहता ,भूल मैंने  की भयंकर 
यहाँ तक कि शादी भी की ,तो भी लड़की नहीं देखी 
न तो उसके साथ घूमा ,और ना ही आशिक़ी  की 
बाँध दी जो भी पिता ने गले ,लेकर सात फेरे 
मेरी मन मरजी मुताबिक़ ,चल रही है साथ मेरे 
सीधी सादी ,भोली भाली ,ना कोई शिकवा शिकायत 
उसको मेरी,मुझको उसकी ,पड़ गयी है अब तो आदत 
वो गृहस्थी निभाती है ,साथ मै उसका निभाता 
एक दूजे के बिना अब ,नहीं हमसे रहा जाता 
वो मेरे मन भा रही है ,उसके मन मै भा रहा हूँ 
बुढ़ापे में ,साथ उसके ,मैं बड़ा सुख पा रहा हूँ 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू' 

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