एक वो भी जमाना था,हम सभी के थे दुलारे
प्यार करते थे हमें सब, चाहते बांहे पसारे
झलक हल्की सी हमारी ,लुभाती सबका जिया थी
छुपा दिल सा,साड़ियों में ,हमें रखती गृहणियां थी
उनके पहलू में कभी बंध ,कभी ब्लाउज में दुबक कर
बहुत हमने मौज मारी ,और उठाया मज़ा छक कर
वक़्त ने पर एक दिन में ,हुलिया ऐसी बिगाड़ी
एक पिन में हुई पंक्चर ,हेकड़ी सारी हमारी
मार ऐसी पड़ी हम पर ,जीने के लाले पड़े है
कल तलक रंगीन थे हम,आजकल काले पड़े है
हाँ,कभी हम नोट होते ,पांच सौ के और हज़ारी
शान कल तक थी रईसी ,बन गए है अब भिखारी
आज हम आंसू बहाते ,और दुखी है इसी गम से
लोग लाइन में लगे है, छुड़ाने को पिंड हम से
पसीने और खून की हम ,कभी थे गाढ़ी कमाई
और बुरा जब वक़्त आया ,सभी ने नज़रें चुराई
आदमी की जिंदगी में ,ऐसा भी है समय आता
आप जिनसे प्यार करते ,तोड़ देते वही नाता
बात नोटों की नहीं है,हक़ीक़त यह जिंदगी की
चवन्नी हो या हज़ारी, बुरी गत होती सभी की
जमाने की रीत है ये ,और ये ही सृष्टि क्रम है
मैं,अहम्,अपना पराया,सब क्षणिक है और भ्रम है
हाथ ले, यमपाश कोई, मिटाने अस्तित्व आता
साथ कुछ जाता नहीं है,सब यहीं पर छूट जाता
चाहते सब नवागत को ,पुराने को भूल जाते
व्यर्थ ही हम दुखी होकर ,हृदय को अपने जलाते
इसलिए बेहतर यही है ,रखें ये संतोष मन में
हो गए है अब रिटायर ,कभी हम भी थे चलन में
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'