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रविवार, 7 फ़रवरी 2016

कवि की मनोदशा

एक कवि हूँ मैं,
सदैव ही उपेक्षित,
सदैव ही अलग सा,
यूँ रहा हूँ मैं ।

पता नहीं पर क्यों,
सब भागते हैं मुझसे,
हृदय की बात बोलूँ,
तिरस्कार है होता ।

कविता ही दुनिया,
कविता ही भावना,
कविता ही सर्वस्व,
मेरा भंडार है यही ।

छंद मेरे कपडे,
अलंकार मेरे गहने,
रचना ही है भोजन,
मेरा संसार यही है ।

भावनाएँ अकसर बहकर,
कविता में है ढलती,
फिर भावनाओं का मेरे,
यूँ बहिष्कार क्यों है ।

क्यों नहीं सब सुनते,
खुले दिल से कविता,
हठ कर कर सबको,
कब तक सुनाता जाऊँ ।

काव्य ही जब धर्म है,
कविता ही तो कहुँगा,
सुनने को तुझे आतुर,
कैसे बनाता जाऊँ ।

क्यों नहीं समझते,
कृपा है माँ शारदे की,
मैं भी बहुत खाश हूँ,
एक कवि हूँ मैं ।

हाँ मैं कवि हूँ,
कविता ही सर्वस्व है,
देखो भले जिस भाव से,
पर हाँ मैं कवि हूँ ।

-प्रदीप कुमार साहनी

**कवि की दशा** (हास्य कविता

वह कवि है,
हाहाकार है,
डरते हैं बच्चे,
बस नाम से उसके ।

सोता नहीं जब रात में,
कहती उसकी माँ,
सोता है या बुलाऊँ,
जगा होगा वो कवि,
बच्चा खुद ब खुद,
सो जाता है यूँ ही ।

बुजुर्ग भी अकसर,
कतराते हैं उससे,
कतराना क्या है जी,
घबराते हैं उससे,
डरते हैं सोचकर,
छोड़ न दे कहीं,
कविता रुपी बम कोई ।

हमउम्र भी अकसर,
मिलते नहीं दिल से,
काम का बहाना कर,
खिसकते ही जाते ।
हाफिज सईद से ज्यादा,
इससे सिहरते जाते ।

पर उसको नहीं है गम,
आखिर वो कवि है,
जिह्वा में सदैव,
कविता है बसती,
अधर जब फड़फड़ाये,
कविता है झड़ती ।
आतुर रहता सदैव,
सुनाने अपनी रचना,
पकड़ पकड़ कर अकसर,
वो सुनाता भी है ।

बीच चौपाल में अकसर,
बिना चेतावनी दिए ही,
जब शुरु कर देता है,
काव्य पाठ अपना ,
बच बचाकर लोग,
तब फूटने हैं लगते ।
गिरते-पड़ते इधर उधर,
सरकने हैं लगते ।

पर अब कला उसकी,
पहचान में है आई,
अकसर लोग उसको,
अब बुलाते भी हैं,
भीड़ हो या जाम हो,
या कैसा भी रगड़ा हो,
तीतर बितर करने को,
उसकी सुनवाते भी हैं ।

बच्चे को सुलाना हो,
या भीड़ को भगाना हो,
हर काम में उसको,
याद करते हैं लोग ।

वो बस सुनाता है,
दिल की दिल में गाता है,
कविताएँ ही बनाता है,
जिस किसी भी रुप में,
भावनाएँ बहाता है,
आखिर वो कवि है ।
वो एक कवि है ।

(कृपया हास्य रूप में ही लें)

-प्रदीप कुमार साहनी

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा

    एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा

मैं थी थोड़ी  भरी हुई सी ,मटकी,अपनी  छत पर
दिल्ली की भोली जनता सी,तुम आये झट उड़ कर
सीधी सी  टोपी  पहने , गुलबंद गले में   टांगा
मैं समझी भोला ,तुम निकले ,बड़े मतलबी कागा
सुख के सपने ,आश्वासन की ,कंकरी मुझ में डाली
मेरा पानी ऊपर आया ,तुमने प्यास   बुझाली
सोचा था अपनाओगे पर तुम सत्ता के भूखे
मेरा हाल कभी ना पूछा ,रो रो आंसू   सूखे
खांस खांस कर दिल्ली का पॉल्यूशन स्वयं बढ़ाया
और 'आड 'ईवन 'के चक्कर में जनता को उलझाया
रोज रोज झगड़े  करते,अपनी दूकान  चलाते
 मुझको कचरे से मैला कर ,बेंगलूर भग जाते
तुम झूंठे,तुम्हारे वादे और सब बातें झूंठी
भोग रहे सत्ता का सुख तुम ,मुझ को करके जूंठी
आम आदमी का रस चूंसा ,और नहीं फिर सुध ली
बची सिरफ़ छिलके सी टोपी,और तुम निकले गुठली

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

अपनी दिल्ली छोड़ कर

           अपनी दिल्ली छोड़ कर

अपना मफलर ,अपनी टोपी ,अपनी दिल्ली छोड़ कर
भाग रहे बंगलूर को हो ,इलाज कराने दौड़ कर
' आड 'और 'ईवन 'चक्कर में ,दिल्ली की जनता को सता
सड़कों पर फैला कर ढेरों ,कूड़ा ,करकट , रायता
पोलल्युशन को बढ़ा गए हो ,तुम अपना मुख मोड़ कर
अपना मफलर ,अपनी टोपी,अपनी दिल्ली छोड़ कर
मुश्किल से तुम भाग रहे हो ,यह तुम्हारा  ढोंग है
खांसी का इलाज है अदरक  और शहद है,लोंग है
हाल ठीक करते हो अपना और दिल्ली बदहाल है
नहीं दूध के धुले हुए तुम,क्या ये कोई चाल है
और ठीकरा इस सबका ,औरों के सर पर फोड़ कर
भाग रहे तुम बेंगलूर ,इलाज कराने  दौड़ कर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

तुम बेगाने हो जाओगे

 तुम बेगाने हो जाओगे
 
कोई बेगाने को इतना  अपनाओगे
कि अपनों से ,तुम बेगाने हो जाओगे
नौ महीने तक रखा कोख में ,पाला पोसा
सच्चे मन से ,तुमको अपना प्यार परोसा
उस माँ का भी तोड़ दिया दिल और भरोसा
बुरा भला कह ,उसको ही करते हो कोसा
बेटे ,सपने में भी कभी नहीं सोचा था ,
ऐसे हो जाओगे, इतने बदल जाओगे
कि अपनों से तूम बेगाने हो जाओगे
इतने वर्षों तक तुमको प्यारी लगती थी
वो माँ जो तुमको सबसे न्यारी लगती थी
चार दिनों ,पत्नी सुख पा,इतने पगलाए
उससे अच्छी कोई तुम्हे नज़र ना आये
प्यार सभी ही करते है अपनी पत्नी से ,
लेकिन तुम इतने दीवाने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे
अपने सारे भाई बहन का प्यार भुलाया
किया पिता ने इतना सब उपकार भुलाया
पढ़ा लिखा कर तुम्हे बनाया जिसने लायक
आज उन्ही की बातें लगती तुमको बक बक
मैं और मेरी मुनिया में सीमित कर दुनिया ,
शादी कर तुम इतने स्याने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे

मदन मोहन बाहेती;घोटू' 

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