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गुरुवार, 17 सितंबर 2015

मेरी सुबह बन जाती है

    मेरी सुबह बन जाती है

सवेरे सवेरे ,
तुम्हारे हाथों से बनाया,
गरम चाय का प्याला ,
 जब मेरे हाथों में आता है
और उससे उठती हुई ,
गरम गरम वाष्प की लहरें ,
जब मेरे ओठों से टकराती है
मुझे तेरे जिस्म की गर्मी ,
महसूस कराती है
चाय के गुलाबी रंग में ,
तेरी छवि दिखलाती है
तेरा ये स्वरूप देख कर ,
मेरे होंठ कुलबुलाने लगते है
मे ,बावरा सा ,
रूप रास पान करने की लालसा में,
उसे होठों से लगा लेता हूँ
और देर तक मेरे होंठ,
उस ऊष्मा की ,
गरमाहट की झनझनाहट से  ,
तरंगित होते रहते है
ऐसा मेरे साथ ,
रोज रोज होता है
जब चाय के रूप में ,
तू मुझे लुभाती है
और मेरी सुबह बन जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जल कण

          जल कण

स्नानोपरांत ,
तुम्हारे कुन्तलों से टपकती हुई ,
जल की बूँदें ,
तुम्हारे कपोलों को सहलाती हुई ,
जब तुम्हारे वक्षस्थल में समाती है
बड़ी सुहाती है
ऊष्मा से उपजी ,
स्वेद की धारायें ,
जब तुम्हारे गालों पर बहती है
तुम्हारा श्रृंगार बिगाड़ देती है
भावना से अभिभूत हो,
तुम्हारी आँखें,
जब मोती से आंसू टपकाती है
तुम्हारे गालों पर,
अपनी छाप छोड़ जाती है
सुख में या अवसाद में ,
या किसी की याद में ,
बारिश या धूप में
किसी भी रूप में ,
जल के कण ,
जब भी मौका पाते है
तेरे गालों को सहलाते है
बड़े इतराते है
काश मैं भी ……

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंहगाई की महिमा

           मंहगाई की महिमा

औरत को घर की मुर्गी ,कहते थे लोग अक्सर
और उसकी हैसियत थी  बस दाल के बराबर
दालों का दाम जब से  ,आसमान  चढ़  गया है
वैसे ही औरतों का  ,रुदबा  अब  बढ़  गया है
मुर्गी और दाल सबको ,मंहगा  बना दिया  है
मंहगाई  तूने   अच्छा , ये  काम तो किया है

घोटू

स्विमिंगपूल और डेंगू

            स्विमिंगपूल और डेंगू
                         १
अदना सा देख कर के ,'इग्नोर'नहीं करना,
                हर शख्सियत की होती ,अपनी ही अहमियत है
जो काम होता जिसका , करता है अच्छा  वो ही ,
                 तलवार  क्या  करे जब ,सुई   की   जरूरत   है
कहते है हाथी तक भी, घबराता चींटी से है,
                   वो सूंड में जा उसकी ,  कर  देता  मुसीबत है
कल तक जो था लबालब ,हम तैरते थे जिसमे,
                  डेंगू के  डर  से खाली ,स्वमिंगपूल   अब  है
                       २
मच्छर जिसे हम यूं ही ,देते मसल मसल थे ,
                 अब तोप से भयानक  ,उसकी नसल हुई है
डेंगू के इस कहर से ,सब कांपने लगे है,
                  कितनी  दवाइयाँ  भी ,अब बेअसर  हुई  है
डेंगू के  डर से  देखो, अब हो  गया है खाली,
                 था कल तलक लबालब ,जो तरणताल प्यारा
जबसे गयी जवानी, हम हो गए है खाली ,
                 इस तरणताल  सा ही ,अब हाल   है  हमारा
                            ३      
तुच्छ को तुच्छ कभी ,मत समझो भूले से ,
               बड़े बड़े उच्चों को ,ध्वंस कर सकता है
छोटी सी लड़की ने ,संत को पस्त   किया ,
               आज भी आसाराम ,जेल में  सड़ता है
तुच्छ सी तीली से ,जंगल जल जाता है,
                तुच्छ सी गोली से ,प्राण निकल सकता है
छोटा सा मच्छर भी ,अगर काट लेता है,
               मलेरिया ,डेंगू से ,बड़ा  विकल  करता  है
                     
  मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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