एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

मंगलवार, 30 जून 2015

बरसात के रंग

            बरसात के रंग
                     १
रसिकलाल बरसात में तर होकर  घर जाय
पत्नी जी चिंता करे  ,  सर्दी  ना  लग जाय
सर्दी ना लग जाय  ,वस्त्र  जब  भीगे सारे
अपने हाथों झट  पत्नी जी  उन्हें   उतारे,
पोंछे उनका बदन  ,अगन तन में सुलगाये
तभी भीगने में आनन्द ,दोगुना   आये 
               २
उस भीगी बरसात में ,कितनी गर्मी आय
गरम गरम हो पकोड़े ,गरम गरम हो चाय
गरम गरम हो चाय ,हाल कुछ बिगड़े ऐसे
हो ऐसा  माहोल , कोई  फिसले  ना  कैसे
कह घोटू कविराय ,लगे हर चीज  सुहानी
रोज रोज यूं ही  बरसो ,तुम बरखा  रानी
                     ३
दुखीराम कहने लगे ,बड़े तुम्हारे ठाट
हम भीगें ,घर पर मिले ,पत्नीजी की डाट
पत्नीजी की डाट,बड़ी होती है फजीहत
बीबी कहती क्यों करते हो बच्चों सी हरकत
बड़े हो गए इतने   ,अकल ज़रा  ना आई
आज सुबह ही कपड़ों पर थी प्रेस  कराई

घोटू
 

काटा काटी

             काटा काटी
                      १
चाकू से फल सब्जियां ,काटकाट सब खाय
कैंची  टांगों  बीच जो ,  आये सो  कट  जाय
आये सो कट जाए ,  काटते दांत   कटीले
काटे कटे न रात ,काट मच्छर  खूं    पीले
कह घोटू कविराय ,जानता है मेरा  दिल
तनहाई की रात काटना कितना मुश्किल
                       २
कहते है जो  भौंकता , ना काटे  वो  'डॉग'
बुरा शकुन यदि जाय जो,बिल्ली रस्ता काट  
बिल्ली रस्ता काट  ,कटीले उनके  नयना
समय न कटता ,पड़े दूर जब उनसे रहना
'घोटू' उन संग सात ,अगन के काटे चक्कर
आगे पीछे काट रहे ,  चक्कर  जीवन भर
                           ३
मुफलिसी में कट रहे ,जनता के दिन रात
नेता  चांदी    काटते ,जब सत्ता  हो   हाथ
जब सत्ता हो हाथ  , काटते दिन मस्ती में
सर कढ़ाई में और उँगलियाँ  पाँचों घी में
कह 'घोटू'कविराय ,चरण तुम्हारे छूता
पदरक्षक कहलाय,,काट लेता पर जूता
                        ४
खाते थे जो   दांत  की काटी रोटी , मित्र
अब है कन्नी काटते ,क्या व्यवहार विचित्र
क्या व्यवहार विचित्र ,रहे आपस में कट कर
एक दूसरे  के  जो  रोज  काटते  चक्कर
कह घोटू जब स्वार्थ आदमी पर है छाता
तो फिर भाई से भाई भी है कट  जाता
                           ५
चूना ज्यादा पान में ,खाओ ,कटे जुबान
पत्नीजी की बात ना ,काट सके  श्रीमान
काट सके श्रीमान, बात कर प्यारी प्यारी
पति की काटे जेब ,पत्नियां बड़ी निराली
प्यार जता कर ऐसा काटे और फुसलाये
अब तक उसका काट ,देव तक जान न पाये
                       ६
'घोटू' तुम उड़ते रहो ,बंधे डोर के संग
वरना कट हो जाओगे ,जैसे  कटी पतंग
जैसे कटी पतंग  ,कटे ना जीवन  रस्ता
कटे कटे से रह कर होगी हालत   खस्ता
कह घोटू कविराय ,उमर भर काटा स्यापा
संकट काटो प्रभू ,चैन से    कटे  बुढ़ापा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुवार, 25 जून 2015

बदरंगी भाईजान

                बदरंगी भाईजान

इतने बरसों थे सत्ता में ,तब नहीं किसी का रखा ख्याल
बस लिप्त रहे घोटालों में, और रहे कमाते  खूब माल
अब उतर गए जब कुर्सी से ,तो बदल गयी है चाल ढाल
कोई की फसल खराब हुई,पूछा करते हो ,दौड़, हाल
इस हालचाल के तामझाम में जितने पैसे लूटा रहे
पेपर और टी वी वालों की,तुम भीड़ ढेर सी जुटा रहे
यदि उसका पांच प्रतिशत भी,तुम उस गरीब के घर देते
उसकी सब चिंता हर लेते,उसको निहाल  तुंम कर देते
उस त्रसित दुखी के बच्चों को ,मिलती दो रोटी खाने को
तुम बहा रहे हो घड़ियाली ,ये आंसू सिर्फ दिखाने को
हर जगह दौड़ कर जाते हो तुम सहानुभूति दिखलाने को
ये सारा नाटक करते हो तुम अपनी छवि  चमकाने   को
सात आठ साथ में चमचे है ,दो चार रट  लिए है जुमले
जनता का हिती बता खुद को ,सत्तादल पर करते हमले
ये फल है सभी कुकर्मों का ,जनता ने मारी तुम्हे लात
नाकारा समझ नकार दिया ,हर जगह करारी मिली मात
जब हार गए तो भाग गए ,कितने दिन तक लापता रहे
खुद को मुश्किल के मारों का ,तुम आज मसीहा बता रहे
जनता ने काफी झेल लिया ,अब और झेल ना पाएगी
 झूंठे वादों ,आश्वासन के ,बहकावे में ना  आएगी
अब है  तूणीर में तीर नहीं ,और पड़ी हुई ढीली कमान
कल थे बजरंगी भाईजान,अब  हो बदरंगी  भाईजान

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बरसात-तेरे साथ

         बरसात-तेरे साथ
                     १
जब भी   बारिश की  बूँदें छूती  मेरा तन
मुझको आता याद तुम्हारा पहला चुम्बन
ऐसे भिगो दियां करती है ये मेरा तन
जैसे मन को भिगो रहा तेरा अपनापन
                         २
जब जब भी ये मौसम होता है बरसाती
साथ  हवा के होती ,  हल्की  बूंदा बांदी
हाथ पकड़ कर ,तेरे साथ भीगता हूँ जब ,
तब रह रह कर ,ये मन होता है उन्मादी
                           ३
भीगी अलकों से बूँदें ,टपके ,बन मोती 
मधुर कपोलों  पर आभा है दूनी होती
आँचल भी चिपका चिपका जाता है तन से ,
जब ये बूँदें बारिश की  है तुम्हे  भिगोती
                             ४
मौसम ,भीगा भीगा ,आग लगाता तन में
कितने ही अरमान ,भड़क जाते है मन में
मदिरा से ज्यादा मादक ,बारिश की बूँदें ,
रिमझिम रिमझिम जब बरसा करती सावन में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-