दिनचर्या - बुढ़ापे की
रात बिस्तर पर पड़े ,जागे सुबह,
सिलसिला अब ये रोजाना हो गया है
आती है,आ आ के जाती है चली ,
नींद का यूं आना जाना हो गया है
हो गए कुछ इस तरह हालात है
मुश्किलों से कटा करती रात है
देखते ही रहते ,टाइम क्या हुआ ,
चैन से सोये ज़माना हो गया है
आती ही रहती पुरानी याद है,
कभी खांसी तो कभी पेशाब है ,
कभी इस करवट तो उस करवट कभी,
रात भर यूं तडफडाना हो गया है
सुबह उठ कर चहलकदमी कुछ करी ,
फिर लिया अखबार ,ख़बरें सब पढ़ी ,
बैठे ,लेटे , टी .वी देखा बस यूं ही,
अब तो मुश्किल ,दिन बिताना हो गया है
मदन मोहन बाहेती'घोटू '
रात बिस्तर पर पड़े ,जागे सुबह,
सिलसिला अब ये रोजाना हो गया है
आती है,आ आ के जाती है चली ,
नींद का यूं आना जाना हो गया है
हो गए कुछ इस तरह हालात है
मुश्किलों से कटा करती रात है
देखते ही रहते ,टाइम क्या हुआ ,
चैन से सोये ज़माना हो गया है
आती ही रहती पुरानी याद है,
कभी खांसी तो कभी पेशाब है ,
कभी इस करवट तो उस करवट कभी,
रात भर यूं तडफडाना हो गया है
सुबह उठ कर चहलकदमी कुछ करी ,
फिर लिया अखबार ,ख़बरें सब पढ़ी ,
बैठे ,लेटे , टी .वी देखा बस यूं ही,
अब तो मुश्किल ,दिन बिताना हो गया है
मदन मोहन बाहेती'घोटू '