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शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

मित्र पुराने याद आ गये

                   मित्र पुराने याद आ गये

जब यादों ने करवट बदली,मित्र पुराने याद आ गये
आँखों आगे ,कितने चेहरे ,कितने वर्षों बाद आ गये
बचपन में जिन संग मस्ती की ,खेले,कूदे ,करी पढाई 
खो खो और कबड्डी खेली ,गिल्ली डंडे,पतंग उड़ाई
पेड़ों पर चढ़,इमली तोड़ी,जामुन खाये ,की शैतानी 
उन भूले बिसरे मित्रों की,आई  यादें ,कई,पुरानी
धीरे धीरे बड़े हुए तो  ,निकला कोई नौकरी करने
कोई लगा काम धंधे से,गया कोई फिर आगे पढने
सबके अपने अपने कारण थे ,अपनी अपनी मजबूरी
बिछड़ गये  सब बारी बारी,और हो गयी सब में दूरी
सब खोये अपनी दुनिया में,अपने सुख दुःख में,उलझन में
जब लंगोटिया साथी छूटे ,नये दोस्त आये जीवन में
कुछ सहकर्मी ,चंद पड़ोसी,दिल के बड़े करीब छा गये
जब यादों ने करवट बदली ,मित्र पुराने याद आ गये  
कुछ पड़ोस के रहनेवालों के संग इतना बढ़ा घरोपा
एक दूसरे के सुखदुख में ,जिनने साथ दिया अपनों सा
बार बार जब हुआ ट्रांसफर,बार बार  घर हमने बदले
बार बार नूतन सहकर्मी,और पडोसी ,कितने बदले
और रिटायर होने पर जब,कहीं बसे ,तो अनजाने थे
नए पडोसी,नए दोस्त फिर,धीरे धीरे बन जाने थे
क्योंकि उम्र  के इस पड़ाव में,मित्रो की ज्यादा है जरुरत
जो सुख दुःख में ,साथ दे सके ,कह कर आती नहीं मुसीबत
खोल 'फेस बुक ',कंप्यूटर में,वक़्त बिताते हैं कुछ ऐसे
ढूँढा करते दोस्त पुराने,क्या करते है और है कैसे
दूर बसे सब सगे ,सम्बन्धी,अनजाने अब पास आ गये
जब यादों ने करवट बदली,मित्र पुराने,याद आ गये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

यह रात

एक अजीब सा एहसास दिलाती है यह रात
एक दिलासा देती है पास बुलाती 
लिपट के सोने को जी चाहता है इसके साथ
हालात हैं की दिन की रौशनी से मुझे डर लगता है
डर लगता है की यह हसीं ख्वाब टूट न जाएँ
डर लगता है की कोई मुझे इस तरह देख न ले
देख ना ले की मैं आज भी अकेले हूँ 
एक उसकी याद है बस वक़्त गुज़ारने के लिए
एक उम्मीद है बस दिल में इन यादों को सँवारने के लिए 
के कभी मिलेगी कहीं तो मिलेगी वोह मुझसे 
यकीन अपने से ज्यादा मुझे उस पर क्यों है
एक अजीब सा एहसास दिलाती है यह रात

स्त्री तेरी यही कहानी

बचपन में पढ़ा
मैथली शरण गुप्त को
स्त्री है तेरी यही कहानी
आँचल में है दूध
आँखों में है पानी
वो पानी नहीं
आंसू हैं
वो आंसू
जो सागर से
गहरे हैं
आंसू की धार
एक बहते दरिया से
तेज़ है
शायद बरसाती नदी
के समान जो
अपने में सब कुछ समेटे
बहती चली जाती है
अनिश्चित दिशा की ओर
आँचल जिसमें स्वयं
राम कृष्ण भी पले हैं
ऐसे महा पुरुष
जिस आँचल में
समाये थे
वो भी महा पुरुष
स्त्री का
संरक्षण करने में
असमर्थ रहे
मैथली शरण गुप्त की  ये
बातें पुरषों को याद रहती हैं
वो कभी तुलसी का उदाहरण
कभी मैथली शरण का दे
स्वयं को सिद्ध परुष
बताना चाहते हैं या
अपनी ही जननी को
दीन हीन मानते हैं
ऐसा है पूर्ण पुरुष का
अस्तित्व...

बुधवार, 30 जनवरी 2013

ये दूरियां

        ये दूरियां
मै बिस्तर के इस कोने में ,
                           तुम सोई उस कोने में
कैसे हमको नींद आएगी ,
                             दूर दूर यूं    सोने में
ना तो कुछ श्रृंगार किया है ,
                          ना ही तन पर आभूषण
ना ही स्वर्ण खचित कपडे है ,
                           ना ही है हीरक  कंगन
सीधे सादे शयन वसन में ,
                           रूप तुम्हारा अलसाया
कभी चूड़ियाँ,कभी पायलें,
                            बस खनका  करती खन खन 
तेरी  साँसों की सरगम में,
                           जीवन का संगीत भरा,
तेरे तन की गंध बहुत है ,
                              मेरे पागल होने  में
मै बिस्तर के इस कोने में,
                               तुम सोई उस कोने में
तुम उस करवट,मै इस करवट,
                              दूर दूर हम सोये  है
देखें कौन पहल करता है ,
                              इस विचार में खोये है
दोनों का मन आकुल,व्याकुल,
                              गुजर न जाए रात यूं ही ,
टूट न जाए ,मधुर मिलन के,
                                सपने ह्रदय  संजोये है
हठधर्मी को छोड़ें,आओ,                  
                             एक करवट तुम,एक मै लूं,
मज़ा आएगा,एक दूजे की ,
                               बाहुपाश बंध ,सोने में
मै बिस्तर के इस कोने में,
                                 तुम सोयी उस कोने में
कैसे हमको नींद आएगी ,
                                दूर दूर यूं सोने  में

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

 

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

नहीं गलती कहीं भी दाल है बुढ़ापे में

      नहीं गलती कहीं भी दाल है बुढ़ापे में

वो भी क्या दिन थे मियां फाख्ता उड़ाते थे ,
                           जवानी ,आती बहुत याद है बुढ़ापे में
करने शैतानियाँ,मन मचले,भले ना हिम्मत,
                               फिर भी आते नहीं हम बाज है बुढ़ापे में 
बड़े झर्राट ,तेज,तीखे,चटपटे  थे हम,
                               गया कुछ ऐसा बदल स्वाद है,बुढ़ापे में
अब तो बातें ही नहीं,खून में भी शक्कर है,
                               आगया  इस कदर मिठास  है बुढ़ापे में
देख कर गर्म जलेबी,रसीले रसगुल्ले ,
                                टपकने  लगती मुंह से लार है बुढ़ापे में
लगी पाबंदियां है मगर मीठा खाने पर ,
                                मन को ललचाना तो बेकार है बुढ़ापे  में 
देख  कर ,हुस्न सजीला,जवान,रंगीला ,
                                 बदन में जोश फिर से भरता है बुढ़ापे में
जब की मालूम है,हिम्मत नहीं तन में फिर भी,
                                 कुछ न कुछ करने को मन करता है बुढ़ापे में
न तो खाने का,न पीने का ,नहीं जीने का,
                                  कोई भी सुख नहीं ,फिलहाल है बुढ़ापे में
कभी अंकल ,कभी बाबा कहे हसीनायें ,
                                     नहीं गलती कहीं भी दाल है ,बुढ़ापे में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

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