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मंगलवार, 1 जनवरी 2013

अमर बेल

       अमर बेल

तरु के तने से  लिपटी कुछ लताएँ
पल्लवित पुष्पित हो ,जीवन महकाए
और कुछ जड़ हीन बेलें ,
तने का सहारा ले,
वृक्ष पर चढ़ जाती
डाल डाल ,पात पात ,जाल सा फैलाती
वृक्ष का जीवन रस ,सब पी जाती है
हरी भरी खुद रहती ,वृक्ष को सुखाती है
उस पर ये अचरज वो ,अमर बेल कहलाती है
जो तुम्हे सहारा दे,उसका कर शोषण
हरा भरा रख्खो तुम ,बस  खुद का जीवन
जिस डाली पर बैठो,उसी को सुखाने का
क्या यही तरीका है ,अमरता पाने का ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

वर्ना .................?

  वर्ना .................?
नए वर्ष की नयी सुबह,
दिल्ली में सूरज नहीं निकला
शायद  वह ,दिल्ली में ,
देश की एक बेटी के साथ ,
कुछ दरिंदों द्वारा किये गए ,
बलात्कार से लज्जित था
या शायद,
देश के नेताओं की सुस्त प्रतिक्रिया ,
और व्यवहार से लज्जित था
या शायद ,
दामिनी की आत्मा ने ऊपर पहुँच कर,
उससे कुछ प्रश्न किये  होंगे,
और उससे कुछ जबाब देते न बना होगा ,
तो उसने कोहरे की चादर  में,
अपना मुंह छुपा लिया होगा
क्योंकि अगर सूरज दिल्ली का नेता होता ,
तो बयान  देता,
ये घटना उसके अस्त होने के बाद हुई,
इसलिए इसकी जिम्मेदारी चाँद पर है
उससे जबाब माँगा जाय   
और यदि उससे यह पूछा जाता कि ,
क्या दिन में ऐसी  घटनाएं नहीं होती ,
तो शायद वो स्पष्टीकरण देता ,
कि  जब बादल उसे ढक  लेते है,
तब ऐसा हो जाता होगा
सब अपनी जिम्मेदारी से,
कैसे कैसे बहाने बना ,
बचने की कोशिश करते रहते है  
और दामिनियोन  की अस्मत लुटती रहती है
पर अब जनता का आक्रोश जाग उठा है ,
बहाने बनाना छोड़ दो ,
थोडा सा डरो ,
और कुछ करो
वरना .............?
मदन मोहन बहेती'घोटू'

नए साल में


सभी पंक्तियों का पहला अक्षर मिलाने पर "नया साल सबके लिए सुखद एवं मंगलमय हो" )

वरंग सी उमंग लिए,
या आसमान के जैसे खुले विचार;
सागर से भी गहरी सोच या,
श्कर लिए ख़ुशी का, गम दरकिनार|

रस कर इन चार लम्हों को,
रसती सावन की बूंदों का झार;
केंद्र में लिए लक्ष्य को अपने,
लिख दे हर दिल में बस प्यार ही प्यार|

क अकेला चल पथ में,
सुप्त पड़ जाये गर ये संसार;
बर दे सबको बस खुशियों भरा,
वा बन सबका, लगा दे पार|

कल व्यक्तित्व गर ढह भी जाये,
वंदन और पूजन न हो तार-तार;
मंगल पथ में कर मगल कर्म,
र आ भी जाये दुखते आसार|

य पर सीधा चलते चल,
र्म तब जानेगा जीवन के चार;
ह मान ले पथ में सिर्फ कांटें नहीं हैं,
होगा भला करले भला अपार|

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

जवानी पर,चढ़ गयी है सर्दियाँ

 जवानी पर चढ़ गयी है सर्दियां

रात की ठिठुरन से बचने, भूल सब शिकवे ,गिले
शाम ,डर  कर,उलटे पैरों,दोपहर  से जा  मिले
ओढ़ ले कोहरे की चादर ,धूप ,तज अपनी अकड़
छटपटाये चमकने को ,सूर्य पीला जाये     पड़ 
हवायें जब कंपकंपाये ,निकलना मुश्किल करे
चूमने को चाय प्याला ,बारहां जब दिल करे
जेब से ना हाथ निकले ,दिखाये कन्जूसियाँ
पास में बैठे रहे बस ,लगे मन  भाने  पिया
लिपट तन से जब रजाई ,दिखाये हमदर्दियाँ
तो समझ लो ,जवानी पर,चढ़ गयी है सर्दियाँ
घोटू

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

ख्वाब क्या अपनाओगे ?

प्रत्यक्ष को अपना न सके, ख्वाब क्या अपनाओगे;
बने कपड़े भी पहन न पाये, नए कहाँ सिलवाओगे |

दुनिया उटपटांगों की है, सहज कहाँ रह पावोगे,
हर हफ्ते तुम एक नई सी, चोट को ही सहलाओगे |

सारे घुन को कूट सके, वो ओखल कैसे लावोगे,
जीवन का हर एक समय, नारेबाजी में बिताओगे |

जीवन भर खुद से ही लड़े, औरों को कैसे हराओगे,
मौके दर मौके गुजरे हैं, अंत समय पछताओगे |

गमों को हंसी से है छुपाया, आँसू कैसे बहाओगे,
झूठ का ही हो चादर ओढ़े, सत्य किसे बतलाओगे |

सीख न पाये खुद ही जब, क्या औरों को सिखलाओगी,
बने हो अंधे आँखों वाले, राह किसे दिखलाओगे |

व्यवस्था यहाँ की लंगड़ी है, क्या लाठी से दौड़ाओगे,
बोल रहे बहरे के आगे, दिल की कैसे सुनाओगे |


हक खुद का लेने के लिए भी, हाथ बस फैलाओगे,
भीख मांगने के ही जैसा, हाथ जोड़ गिड़गिड़ाओगे |

लोकतन्त्र के राजा तुम हो, प्रजा ही रह जाओगे,
कृतघ्न हो जो वो प्रतिनिधि, खुद ही चुनते जाओगे |

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