कब
तक
मुट्ठी
में बँधे
चंद
गीले सिक्ता कणों की नमी में
मैं
समंदर के वजूद को तलाशती रहूँ
जो
बालारूण की पहली किरण के साथ ही
वाष्प
में परिवर्तित हो
हवा
में विलीन हो जाती है !
कब
तक
मन
की दीवारों पर
उभरती
परछाइयों की उँगली पकड़े
मैं
एक स्थाई अवलम्ब पा लेने के
अहसास
से अपने मन को बहलाती रहूँ
जो
भोर की पहली दस्तक पर
भुवन
भास्कर के मृदुल आलोक के
विस्तीर्ण
होते ही जाने कहाँ
तिरोहित
हो जाती हैं !
कब
तक
शुष्क
अधरों पर टपकी
ओस
की एक नन्ही सी बूँद में
समूचे
अमृत घट के
जीवनदायी
आसव को पी लेने की
छलना
से अपने मन को छलती रहूँ
जो
कंठ तक पहुँचने से पहले
अधरों
की दरारों में जाने कहाँ
समाहित हो जाती है !
कब
तक
हर
रंग, हर आकार के
कंकरों
से भरे जीवन के इस थाल से
अपनी
थकी आँखों पर
नीति
नियमों की सीख का चश्मा लगा
सुख
के गिने चुने दानों को बीन
सहेजती
सँवारती रहूँ
जबकि
मैं जानती हूँ कि इस
प्राप्य
की औकात कितनी बौनी है !
कब
तक
थकन
से शिथिल अपने
जर्जर
तन मन को इसी तरह
जीवन
के जूए में जोतना होगा ?
कब
तक
अनगिनत
खण्डित सपनों के बोझ से झुकी
अपनी
क्लांत पलकों के तले
फिर
से बिखर जाने को नियत
नये-नये
सपनों को सेना होगा ?
कब
तक
हवन
की इस अग्नि में
अपने
स्वत्व को होम करना होगा ?
कितना
थक गयी हूँ मैं !
बस
अब और नहीं _______!
साधना
वैद