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सोमवार, 26 नवंबर 2012

चन्दन सा बदन

      चन्दन सा बदन

पत्नी जी हो नाराज,तो उन्हें मनाना
जैसे हो लोहे के चने  चबाना
सीधी  सच्ची बात भी उलटी लगती है
एसा लगता है,सब हमारी ही गलती है
एक बार पत्नी जी थी नाराज़,हमें था मनाना
हमने गा दिया ये गाना
'चन्दन सा बदन ,चंचल चितवन ,
 धीरे से तेरा ये मुस्काना'
अधूरा था गाना और पत्नी ने मारा ताना
'अच्छा ,तो अब तुम्हे मेरा बदन ,
लगता है चन्दन की लकड़ी '
हमने सर पीटा ,हो गयी कुछ गड़बड़ी
हमने कहा नहीं ,हमारा मतलब था ,
तुम्हारा बदन चन्दन सा महकाता है
वो बोली'चन्दन तो तब खुशबू देता है ,
जब वो पुराना होकर सूख जाता है
तो क्या तुम्हे हमारा बदन पुराना और,
सूखी लकड़ी सा नज़र आता है?
तो फिर क्यों लिपटे रहते हो मेरे संग
चन्दन पर तो लिपटते है भुजंग
हमने कहा गलती हो गयी रानी
अब करो मेहरबानी
देवीजी ,तुम चन्दन हम पानी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


--आत्मशक्ति पर विश्वास;


['' खामोश ख़ामोशी और हम '' काव्य संग्रह में प्रकाशित मेरी रचना ]
जीवन एक ऐसी पहेली है जिसके बारे में बात करना वे लोग ज्यादा पसंद करते हैं जिन्होंने कदम-कदम पर सफलता पाई हो.उनके पास बताने लायक काफी कुछ होता है. सामान्य व्यक्ति को तो असफलता का ही सामना करना पड़ता है.हम जैसे साधारण मनुष्यों की अनेक आकांक्षाय होती हैं. हम चाहते हैं क़ि गगन छू लें; पर हमारा भाग्य इसकी इजाजत नहीं देता.हम चाहकर भी अपने हर सपने को पूरा नहीं कर पाते .यदि मन की हर अभिलाषा पूरी हो जाया करती तो अभिलाषा भी साधारण हो जाती .हम चाहते है क़ि हमें कभी शोक ;दुःख ; भय का सामना न करना पड़े.हमारी इच्छाएं हमारे अनुसार पूरी होती जाएँ किन्तु ऐसा नहीं होता और हमारी आँख में आंसू छलक आते है. हम अपने भाग्य को कोसने लगते है.ठीक इसी समय निराशा हमे अपनी गिरफ्त में ले लेती है.इससे बाहर आने का केवल एक रास्ता है ---आत्मशक्ति पर विश्वास;------


राह कितनी भी कुटिल हो ;
हमें चलना है .
हार भी हो जाये तो भी
मुस्कुराना है;
ये जो जीवन मिला है
प्रभु की कृपा से;
इसे अब यूँ ही तो बिताना है.
रोक लेने है आंसू
दबा देना है दिल का दर्द;
हादसों के बीच से
इस तरह निकल आना है;
न मांगना कुछ
और न कुछ खोना है;
निराशा की चादर को
आशा -जल से भिगोना है;
रात कितनी भी बड़ी हो
'सवेरा तो होना है'.

                           शिखा कौशिक 'नूतन'

बस ! अब और नहीं ___





 

कब तक
मुट्ठी में बँधे
चंद गीले सिक्ता कणों की नमी में
मैं समंदर के वजूद को तलाशती रहूँ
जो बालारूण की पहली किरण के साथ ही
वाष्प में परिवर्तित हो
हवा में विलीन हो जाती है ! 
कब तक
मन की दीवारों पर
उभरती परछाइयों की उँगली पकड़े
मैं एक स्थाई अवलम्ब पा लेने के
अहसास से अपने मन को बहलाती रहूँ
जो भोर की पहली दस्तक पर  
भुवन भास्कर के मृदुल आलोक के
विस्तीर्ण होते ही जाने कहाँ
तिरोहित हो जाती हैं ! 
कब तक
शुष्क अधरों पर टपकी
ओस की एक नन्ही सी बूँद में
समूचे अमृत घट के
जीवनदायी आसव को पी लेने की
छलना से अपने मन को छलती रहूँ
जो कंठ तक पहुँचने से पहले
अधरों की दरारों में जाने कहाँ  
समाहित हो जाती है !
कब तक
हर रंग, हर आकार के
कंकरों से भरे जीवन के इस थाल से
अपनी थकी आँखों पर
नीति नियमों की सीख का चश्मा लगा  
सुख के गिने चुने दानों को बीन
सहेजती सँवारती रहूँ
जबकि मैं जानती हूँ कि इस
प्राप्य की औकात कितनी बौनी है !
कब तक
थकन से शिथिल अपने
जर्जर तन मन को इसी तरह
जीवन के जूए में जोतना होगा ?
कब तक
अनगिनत खण्डित सपनों के बोझ से झुकी
अपनी क्लांत पलकों के तले
फिर से बिखर जाने को नियत
नये-नये सपनों को सेना होगा ?
कब तक
हवन की इस अग्नि में
अपने स्वत्व को होम करना होगा ?   
कितना थक गयी हूँ मैं !
बस अब और नहीं _______!
साधना वैद

रविवार, 25 नवंबर 2012

कविता

बेचारी मधुमख्खी

        बेचारी मधुमख्खी

निखारना हो अपना  रूप 
या दिल को करना हो मजबूत
मोटापा घटाना  हो
खांसी से निजात पाना हो
चेहरा हो बहुत सुन्दर ,इसलिए
नहीं हो ,हाई ब्लड प्रेशर ,इसलिए
हम शहद काम में लाते है
पर कृषि वैज्ञानिक बताते है
शहद का बनाना नहीं है सहज 
और एक मधुमख्खी ,अपने जीवनकाल में,
पैदा करती ही कुल आधा चम्मच शहद
मधुमाख्खियाँ,फूलों के ,
करीब दो करोड़ चक्कर लगाती है
तब कहीं ,आधा किलो शहद बन पाती है
मधुमख्खियों के ,पांच आँख होती है
वो,कभी भी नहीं सोती है
मधुमाख्खियों को लाल रंग,
काला  दिखता  है
इसलिए लाल फूलों का ,
शहद नहीं बनता है
फिर भी ,लगी रहती है दिन रात ,
पूरी लगन के साथ 
कभी भी ना थकी
बेचारी मधुमख्खी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


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