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रविवार, 27 मई 2012

जेबकतरी सरकार



बढ़ती कीमत देख के मच गया हाहाकार,
जनता की जेबें काटे ये जेबकतरी सरकार |

मोटरसाईकिल को सँभालना हो गया अब दुश्वार
कीमतें पेट्रोल की चली आसमान के पार |

बीस कमाके खरच पचासा होने के आसार,
महँगाई करती जाती है यहाँ वार पे वार |

त्राहिमाम कर जनता रोती दिल में जले अंगार,
सपने देखे बंद होने के महँगाई के द्वार |

महंगाई के रोध में सब मांगेंगे अधिकार,
दो-चार दिन चीख के मानेंगे फिर हार |

तेल पिलाये पानी अब कुछ कहना निराधार,
मन मसोस के रह जाना ही शायद जीवन सार |

लुटे हुए से लोग और धुँधला दिखता ये संसार,
गर्मी के मौसम में अब मिले हैं ये उपहार |

देख न पाती दु:ख जनता के उल्टे देती मार,
जेबकतरी सरकार है ये तो जेबकतरी सरकार |

शुक्रवार, 25 मई 2012

विसंगति

    विसंगति

एक बच्ची के कन्धों पर,

                  स्कूल के कंधे  का बोझ है
एक बच्ची घर के लिए,
                  पानी भर कर लाती रोज है
एक को ब्रेड,बटर,जाम,
                      खाने में भी है नखरे
एक को मुश्किल से मिलते है,
                       बासी रोटी  के टुकड़े
एक को गरम कोट पहन कर
                        भी   सर्दी  लगती है 
एक अपनी फटी हुई  फ्राक में
                          भी ठिठुरती   है
एक के बाल सजे,संवरे,
                         चमकीले  चिकने है
एक के केश सूखे,बिखरे,
                         घोंसले  से बने  है
एक के चेहरे पर गरूर है,
                        एक में भोलापन है
इसका भी बचपन है,
                       उसका भी बचपन है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

संयम- दो कविताये

       संयम- दो कविताये
                   1
               चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी सर्दी  में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत  जाती है
                      २
         तकिया
जिसको सिरहाने रख कर के,
                           मीठी नींद कभी आती थी
जिसको बाहों में भर कर के
                         ,रात विरह की कट जाती थी
कोमल तन गुदगुदा रेशमी,
                        बाहुपाश में सुख देता था
जैसे चाहो,वैसे खेलो,
                         मौन सभी कुछ सह लेता था
वो तकिया भी ,साथ उमर के,
                        जो गुल था,अब खार  बन गया
बीच हमारे और तुम्हारे,
                           संयम की दीवार   बन गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

गुरुवार, 24 मई 2012

नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई-

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर

O B O द्वारा आयोजित 

"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक -१४

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कुंडली
बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |

मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  |
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |
हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।
डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

कुंडली
नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |
देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |
मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

दोहे
कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |
दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |
*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??
*पोटली
बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |
कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||
*बालक **चालाक
राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |
चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||
भूप उवाच-
कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?
चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||
*नागफनी / बिछौना
बबलू उवाच-
हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |
माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

कुंडलिया
गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।
सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।
निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।
करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |
है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |
रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

(2)
रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |
प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ
ने आज, सत्य ही मान बढाया |
अरुण निगम
आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

चिक

चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी
सर्दी  में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है
और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत  जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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