संयम- दो कविताये
1
चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी सर्दी में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत जाती है
२
तकिया
जिसको सिरहाने रख कर के,
मीठी नींद कभी आती थी
जिसको बाहों में भर कर के
,रात विरह की कट जाती थी
कोमल तन गुदगुदा रेशमी,
बाहुपाश में सुख देता था
जैसे चाहो,वैसे खेलो,
मौन सभी कुछ सह लेता था
वो तकिया भी ,साथ उमर के,
जो गुल था,अब खार बन गया
बीच हमारे और तुम्हारे,
संयम की दीवार बन गया
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
यूजीसी–आईकेएस मास्टर ट्रेनर्स के लिए एक दिवसीय ओरिएंटेशन प्रोग्राम लखनऊ
विश्वविद्यालय में आयोजित
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लखनऊ, 07 दिसंबर 2025: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) और शिक्षा मंत्रालय के
भारतीय ज्ञान परंपरा (IKS) प्रभाग द्वारा संयुक्त...
8 घंटे पहले
