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शनिवार, 28 जनवरी 2012

ए बसंत तेरे आने से

ए बसंत तेरे आने से
नाच रहा है उपवन
गा रहा है तन मन
ए बसंत तेरे आने से ।

खेतों में लहराती सरसों
झूम रही है अब तो
मानो प्रभात में जग रही है
ए बसंत तेरे आने से ।

चिड़िया भी चहकती है
भोर में गीत गाती है
घर में खुशियाँ आती हैं
ए बसंत तेरे आने से ।

खिल गयी सरसों
बिखर गयी खूशबू
मनमोहक हो गया नज़ारा
ए बसंत तेरे आने से ।
,,,"दीप्ति शर्मा "

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

जैसी निगाहें वैसा शमाँ

जैसी निगाहें वैसा शमाँ,
निगाहों के अनुरुप बदलता जहाँ,
गमगीन होके देखो तो दुनिया उदासीन,
प्यार से देखो तो सबकुछ खुशनुमा ।

कोई कहता आधा है खाली,
कोई कहता है आधा भरा,
नजरिये का फेर है ये सब,
नजरिये पे निर्भर है अपनी धरा ।

सोच अच्छी हो तो होगे सफल,
गलत सोच डुबो देगा नाव,
सकारात्मता जीवन को देती है राह,
हो तपते हुए मौसम में जैसे छाँव ।

एहसास तेरा

ढुँढती है नजरें तुझे हर दिन और हर रात,
आईने में नजरें अब तो तुझे तलाशती है ।

आहट तेरी करार है लेती अब तो हर हर एक पल,
भँवरों की गुँजन भी धुन तेरा सुनाती है ।

सपने तेरे मदहोश हैं करते अब निद्रा में हर रात,
जागती हुई आँखे भी ख्वाब तेरा दिखाती है ।

छुवन तेरा महसूस है करता ये मन हर लम्हा,
हवाओं की सरसराहट एहसास तेरा कराती है ।

खुशबू तेरी महकाती है अब बगिया में हरदम,
मादकता फूलों की भी याद तेरा दिलाती है ।

मात-पिता के चरणों में


मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम,
मात-पिता के चरण की माटी सौ चन्दन समान ।

मात-पिता की निःस्वार्थ सेवा, शत यज्ञ का फल दे,
मात-पिता पावन कर देते, गंगा का जल से ।

मात-पिता के स्नेह की छाया ताप में दे आराम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता गुरु से भी बढ़कर, मात-पिता भगवान,
मात-पिता के संस्कारों से बनता कोई महान ।

मात-पिता की दया से मिलते हैं इस जग में नाम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता के दरश से मिलते सुख, शक्ति प्रबल,
मात-पिता के हस्त जो सर पे सब कर्म लगे सरल ।

मात-पिता गुण-धाम हैं इनका क्या मैं करुँ गुणगान,
मात पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

बूढा होता प्रजातंत्र

बूढा होता प्रजातंत्र
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  पेंसठ साल का प्रजातंत्र
और बासठ  का  गणतंत्र
दोनों की ही उमर सठिया गयी है
और सहारे के लिए,हाथों में,लाठियां आ गयी है
मगर कुछ नेताओं ने,
सत्ता को बना लिया अपनी बपौती है
इसलिए लाठी,जो सहारे के लिए होती है
उसका उपयोग,हथियारों की तरह करवाने लगे है
और विरोधियों पर लाठियां भंजवाने लगे है
विद्रोह की आहट से भी इतना डरते है
की रात के दो बजे,सोती हुई महिलाओं पर,
लाठियां चलवाने लगते है
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे है
कुर्सी पर ही चिपक कर ,रहने के मंसूबें है
पर बूढ़े है,इसलिए आँखे कमजोर हो गयी लगती है
इसलिए विद्रोह की आग भी नहीं दिखती है
सत्ता के मद में पगलाये हुए है
शतुरमुर्ग की तरह,रेत में मुंह छुपाये हुए है
जनता की लाठी जब चलेगी
तो वो इनको उखाड़ फेंकेगी
फिर भी ये लाठियां चला रहे है
सत्ता न छिन जाये,घबरा रहें है
जनता त्रस्त है
पर अच्छे दिनों की आशा में आश्वस्त है
पर भ्रष्टाचार में डूबा सारा तंत्र है
बूढा होता हुआ गणतंत्र है
  
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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