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बुधवार, 21 दिसंबर 2011

अनिवासी भारतीय

 अनिवासी  भारतीय
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पहाड़,जंगल और गावों को लांघते हुए,
अपने देश की माटी की खुशबू से महकती नदियाँ,
रत्नाकर  की विशालता देख ,
उछलती कूदती ,ख़ुशी ख़ुशी,
समंदर में मिल तो जाती है
पर उन्हें जब,
अपने गाँव और देश की याद आती है,
तो उनकी आत्मा,
समंदर की लहरों की तरह,
बार बार उछल कर,
किनारे की माटी को,
छूने को छटपटाती है
पर जाने क्या विवशता है,
फिर से समुन्दर में विलीन हो जाती है
विदेशों में बसे,
अनिवासी भारतियों का मन भी,
कुछ इसी तरह लाचार है
जब की उन्हें भी,नदियों की तरह,
अपनी माटी से प्यार है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

(ब्राज़ील से यह रचना पोस्ट  कर रहा हूँ-
यहाँ बसे कुछ भारतियों की भावनाये प्रस्तुत करने की
कोशिश है )

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

कुंडलिया


 दफ्तर लगते दस बजे , औ ' आठ बजे स्कूल ।
 अजब नीति सरकार की , टेढ़े बहुत असूल  ।
 टेढ़े बहुत असूल , फ़िक्र ना मासूमों की 
 ए.सी. में बैठकर , बात हो कानूनों की ।
 न सुनें हैं फरियाद , न दर्द जानते अफ़सर
 जमीं के साथ विर्क , कब जुड़ेंगे ये दफ्तर ?
                  
                                         दिलबाग विर्क 

धुंध


देश ये पूरा
है धुंध की चपेट में,
चारो ही तरफ
है इसका ही साया;
जीवन अस्त-व्यस्त
आमो-खाश भी परेशान,
रेल, सड़क, वायु तक
हर मार्ग है बाधित;
ठण्ड के जोर से
हर चेहरा कुम्भलाया |

चादर ये कोहरे की
है क्षणभंगुर,
चाँद दिनों के बाद ही
सब यथावत होगा,
बसंत राजा के साथ ही
ये धुंध भी छंटेगा |

ये धुंध तो मेहमान है
चंद दिनों या महीने की,
पर उस धुंध का क्या
जो देश पर है छाया;
भ्रष्टाचार रूपी धुंध का
प्रकोप है हर तरफ,
हर जगह, हर शख्श
है इसके आगोश में |

देश को तबाही की ओर
है इसने बढ़ा रखा,
कारण तो कई है
पर समाधान दिखता नहीं,
पता नहीं कब तक
रहेगा ये घना साया ?
न जाने कब तक
रहेंगे हम लपेटे में ?

इस धुंध से वो धुंध
कहीं ज्यादा विकट है,
इस धुंध से सिर्फ
कुछ सेवाएं है रुकी;
उस धुंध ने तो
है देश को रोक रखा;
देश की प्रगति को
उसने बाधित कर रखा,
अर्श के बदले देश आज
फर्श में है पड़ा |

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

शिकवा-शिकायत


शिकवा-शिकायत

 
 
 
 
 
 
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शिकवा-शिकायत
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देख कर अपने पति की बेरुखी,
करी पत्नी ने शिकायत इस तरह
हम से अच्छे तुम्हारे ‘डॉग’ है,
घुमाते हो संग जिनको हर सुबह
गाजरों का अगर हलवा चाहिये,
गाजरों को पहले किस करना पड़े,
इन तुम्हारे गोभियों के फूल से,
भला गुलदस्ता सजेगा किस तरह
सर्दियों में जो अगर हो नहाना,
बाल्टी में गर्म पानी चाहिये,
छत पे जाने का तुम्हारा मन नहीं,
धूप में तन फिर सिकेगा किस तरह
झिझकते हो मिलाने में भी नज़र,
और करना चाहते हो आशिकी,
ये नहीं है सेज केवल फूल की,
मिलते पत्थर भी है मजनू की तरह
तड़फते रहते हो यूं किस के लिए,
होंश उड़ जाते है किस को देख कर,
किसलिए फिर अब तलक ना ‘किस’ लिए,
प्यार होता है भला क्या इस तरह
कर रखी है बंद सारी बत्तियां ,
चाहते हो चाँद को तुम देखना,
छूटती तुमसे रजाई ही नहीं,
चाँद का दीदार होगा किस तरह मदन मोहन बाहेती ‘घोटू’

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