सर्ग-4
शिक्षा और संस्कार
भाग-1
शान्ता के चरण
चले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |
दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||
सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |
माँ बोले जब तोतली, होवे महा विनोद ||
कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||
दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |
बारह महिने में चली, करके स्वयं प्रयास ||
हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |
शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||
दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को तेज |
पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज ||
कौशल्या काकी हुई, काका भूप कहाँय |
सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाँय ||
एक मास के बाद में, शान्ता रानी संग |
गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग ||
कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||
काकी काका के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||
अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||
प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
हैं रानी चम्पावती, इक शरीर दो जान ||
हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||
पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
आनंदित माता पिता, प्यार में जाएँ डूब ||
शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||
राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||
रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||
नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||
नारी बहना बने जो, हो दूजी संतान
होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||
नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय एहसास |
बच्चा पोसे गर्भ में, काया महक सुबास ||
कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||
फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |
भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||
शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||
कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||
जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |
गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृति हुई विलोम ||
माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |
भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||
माता समझाने लगी, कौला रही बताय |
यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||
गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |
शान्ता संग यूँ सुधरता, रूपा केर भविष्य |
दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |
रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||
बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |
प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||
दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |
राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माता लेव बुलाय ||
सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||
संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||
छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा ही था रमण, विनयशील व शिष्ट ||
रमण सुरक्षा में लगा, शान्ता के तुरन्त |
रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||
सौजा रूपा बटुक का, हर पल राखे ध्यान |
रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||
राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||
एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||
सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||
सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||
नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||
चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||
एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||
एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||
बिना योजना के जमी, वह अबला बलवीर |
हाथों में भाला उठा, सजा धनुष पर तीर ||
तीन घरी बीती मगर, लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||
फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||
होते ही संकेत के, देते धावा बोल |
घोर विषैले तीर से, गया बाघ झट डोल ||
भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||
शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||
सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||
शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर ||
शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||
गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||
अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||
कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||
रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||
रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||
बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||
फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||