औरत की व्यथा
हर औरत की अपनी अपनी कोई कथा है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
सब के अपने अपने दुःख है परेशानियां
सबकी होती अपनी अपनी कई कहानियां
कोई दुखी है , उसका बेटा, कँवारा बैठा ,
और किसी की बहू दिखाती उसे धता है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
घर भर पर पहले चलती थी जिसकी सत्ता
बिना इजाजत जिसकी ना हिलता था पत्ता
वो बेचारी बहुत दुखी और परेशान है ,
आज नहीं घर में कोई उसकी सुनता है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
सास ससुर से तंग,त्रस्त कोई की बेटी
सुविधा और अभाव ग्रस्त,कोई की बेटी
परेशान माँ ,बेबस सी तिलतिल घुटती है
बेटी को दामाद , किसी की रहा सता है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
घर की रोज रोज की किचकिच से कुछ ऊबी
काम छोड़ कर ,पूजा पाठ भक्ति में डूबी
लेकिन मन अब भी घर में ऐसा उलझा है ,
करते हुए बुराई बहू की , ना थकता है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
कोई घर की सब जिम्मेदारी ढोती है
फिर कदर नहीं ,ये सोच ,दुखी होती है
कोई रसोई में घुस रहे पकाती व्यंजन ,
पोते पोती की तारीफ़ सुन सुख मिलता है
हर औरत की अपनी अपनी कोई व्यथा है
सुने पिता की बचपन में ,यौवन में पति की
बढ़ी उमर तो ,बेटों पर आश्रित हो जीती
वह जननी है,अन्नपूर्णा , दुर्गा ,लक्ष्मी ,
फिर जीवनभर ,उसमे क्यों ये परवशता है
हर औरत किअपनी अपनी कोई व्यथा है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'