कड़की में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ मगर,आजकल कड़की में हूँ
है मस्ती का मर्ज ,मस्त मन मर्जी में हूँ
मैं चारा ना खाऊं ,कहा जाता बेचारा ,
चारा खाऊ नेता बने विपुल धनस्वामी
पड़ी वक़्त की मार मुझे बीमार कर गयी ,
कुछ न किया बद ,मगर मिली मुझको बदनामी
कार नहीं ,बेकार समझते है मुझको सब ,
मिली न बस ,बेबस ,आवारागर्दी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ ,मगर आजकल कड़की में हूँ
मेरे तन में, मन में विष का वास नहीं ,
फिर भी मुझ पर लोगों का विश्वास नहीं
सांस सांस में प्यार लुटाता मैं जिन पर ,
उन लोगों को होता पर अहसास नहीं
रहा हर बरस ,तरस तरस ,वो ना बरसे ,
जेब गरम ना रहती है पर गरमी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ मगर आजकल कड़की में हूँ
वृहद विचारों वाला हूँ पर हद में रहता ,
सदाचार का मारा सदा चार की सुनता
भाव बढे जिसके प्रभाव से भाव न उठते ,
लिखना चाहूँ गीत ,मिले ना धुन ,सर धुनता
सदा चरण छूता हूँ सदाचरण के कारण ,
बिना सुरा ,बेसुरा होगया ,सरदी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ ,मगर आजकल कड़की में हूँ
मदन मोहन बाहेती ;घोटू '
मैं कड़क नहीं हूँ मगर,आजकल कड़की में हूँ
है मस्ती का मर्ज ,मस्त मन मर्जी में हूँ
मैं चारा ना खाऊं ,कहा जाता बेचारा ,
चारा खाऊ नेता बने विपुल धनस्वामी
पड़ी वक़्त की मार मुझे बीमार कर गयी ,
कुछ न किया बद ,मगर मिली मुझको बदनामी
कार नहीं ,बेकार समझते है मुझको सब ,
मिली न बस ,बेबस ,आवारागर्दी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ ,मगर आजकल कड़की में हूँ
मेरे तन में, मन में विष का वास नहीं ,
फिर भी मुझ पर लोगों का विश्वास नहीं
सांस सांस में प्यार लुटाता मैं जिन पर ,
उन लोगों को होता पर अहसास नहीं
रहा हर बरस ,तरस तरस ,वो ना बरसे ,
जेब गरम ना रहती है पर गरमी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ मगर आजकल कड़की में हूँ
वृहद विचारों वाला हूँ पर हद में रहता ,
सदाचार का मारा सदा चार की सुनता
भाव बढे जिसके प्रभाव से भाव न उठते ,
लिखना चाहूँ गीत ,मिले ना धुन ,सर धुनता
सदा चरण छूता हूँ सदाचरण के कारण ,
बिना सुरा ,बेसुरा होगया ,सरदी में हूँ
मैं कड़क नहीं हूँ ,मगर आजकल कड़की में हूँ
मदन मोहन बाहेती ;घोटू '
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