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सोमवार, 20 अगस्त 2018

बात मुझसे मत करो 

बुढ़ापे में लड़कपन की ,बात मुझसे मत करो 
जवानी ,बेधड़कपन की,बात  मुझसे मत करो 
उमर  की चाय में डूबे ,लुगलुगे अब  होगये  ,
बिस्कुटों के कड़कपन की ,बात मुझसे मत करो 
गिल्ली डंडा खेलने के दिन पुराने लद गये ,
खेलते थे जब दनादन ,बात मुझसे मत करो 
चटकती कलियाँ थी जिन पर मंडराती थी तितलियाँ ,
महकते से उस चमन की ,बात मुझसे मत करो 
निकलते तो खिड़कियों से झांकती थी लड़कियां ,
हमारे उस बांकपन की ,बात मत मुझसे करो 
लिपट  जिससे होंश खोते ,होते थे मदहोश हम,
महकते चंदन बदन की ,बात मत मुझसे करो 
आया कब और पंख फैला कब अचानक उड़ गया ,
बीत कैसे गया यौवन ,बात मत मुझसे करो 
संग थे खुशिया  बरसती ,और सुखी परिवार था , 
बिखरों  के बेगानेपन की ,बात मुझसे मत करो 
कहीं पर ईंटे है टूटी ,कहीं उखड़ा पलस्तर ,
खंडहर होते भवन की ,बात मुझसे मत करो 
ना तो समिधाएं बची है और ना है  आहुति ,
पूर्ण  होते इस हवन की ,बात मत मुझसे करो 


मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बस इतना प्यार मुझे देना 

इतना भी प्यार न चाहूं मैं ,जिसको न सकूं मैं रख  संभाल 
इतना न उपेक्षित भी करना ,कि देना निज मन से निकाल 
मेरे तो लिए यही बस है ,कि  डालो  तुम मुझ पर प्रेमदृष्टी 
ना  तो मैं चाहूँ  अतिवृष्टी  ,ना  मुझे चाहिए  अनावृष्टी 
बस प्रेम भरी रिमझिम बारिश ,सिंचित मेरा तनमन करदे 
बस इतना प्यार मुझे देना  जो रससिक्त जीवन कर दे 

ना प्यार चाहिये उदधि सा विस्तृत,उसमे  है  खारापन 
जिसमे हो ज्वार  कभी भाटा,घटता बढ़ता लहरों का मन  
जो चाँद देख कर घटे बढे ,उठ उठ कर लौट जाए लहरे 
नदियों के जल का मीठापन ,उससे मिलने पर ना ठहरे 
ना प्यार कूप जैसा सीमित,ना हो विशाल वह सागर सा 
मीठाजल,सीमित प्रेमपाश ,मैं चाहूँ प्यार सरोवर सा 

ना सीमित नदी सा तटों बीच  ,ना कभी बाढ़ बन कर उमड़े 
ना सूख बहे एक धारा सा  , कूलों  से इतना  जा बिछड़े 
मैं चाहूँ सरस सलिल सरिता ,कलकल करके बहती जाये 
जिसमे मेरी जीवन नैया ,मंथर गति  चलती  मुस्काये  
यह मोड़ उमर का ऐसा है ,तुम पस्त और मैं भी हूँ थका
बस एक चुंबन ही प्यार भरा ,निशदिन तुम देना मुझे चखा  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
सच ,हम कितने बेसबरे है 

हमने जो कुछ भी पाया है ,उससे भी ज्यादा पाने को 
मौकापरस्त है ,मौका पा ,जल्दी से उसे भुनाने को   
कच्ची केरी का पाल लगा ,जल्दी से  आम बनाने को 
अपने सारे संबंधों का ,जी भर कर लाभ उठाने  को 
करते गड़बड़ी ,हड़बड़ी में ,करते प्रयास अधकचरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 
किस्मत ने जितना दिया हमें ,उससे ना है संतोष हमे 
औरों को आगे बढा  देख ,मन में आता है  रोष  हमें 
हम भी कुछ कर दिखला ही दे ,आने लगता है जोश हमे 
पर नहीं सफलता जब मिलती ,तो आता है आक्रोश हमें 
और अपना रौब दिखाने को ,हम बनने लगते जबरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 
हम आज बीज बो ,फल पाने ,कल से अधीर हो जाते है 
कितना ही सींचों रोज रोज ,फल मौसम में ही आते है 
कितने ही लोग प्रगतिपथ पर ,नित नित रोड़े अटकाते है 
बाधा से लड़ ,धीरे धीरे ,हम  निज  मंजिल को पाते है  
इस धूपछांव के जीवन में ,हम बन जाते चितकबरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
माँ बीमार है
माँ बीमार है
दिल थोडा कमजोर हो गया,घबराता है
थोडा सा भी खाने से जी मचलाता है
आधी से भी आधी रोटी खा पाती है
अस्पताल का नाम लिया तो घबराती है
साँस फूलने लगती जब कुछ चल लेती है
टीवी पर ही कथा भागवत सुन लेती है
जी घबराता रहता है ,आता बुखार है
माँ बीमार है
प्रात उठ स्नान ध्यान पूजन आराधन
गीताजी का पठन ,आरती, भजन, कीर्तन
फिर कुछ खाना,ये ही दिनचर्या होती थी
और रात को हाथ सुमरनी ले सोती थी
ये दिनचर्या बीमारी में छूट गयी है
कमजोरी के कारण थोड़ी टूट गयी है
बीमारी की लाचारी से बेक़रार है
माँ बीमार है
फ़ोन किसी का आता है,खुश हो जाती है
कोई मिलने आता है,खुश हो जाती है
याद पुरानी आती है,गुमसुम हो जाती
बहुत पुरानी बाते खुश हो होकर बतलाती
अपना गाँव मकान , मोहल्ला याद आते है
पर ये तो हो गयी पुरानी सी बाते है
एक बार फिर जाय वहां ,मन बेक़रार है
माँ बीमार है
बचपन में मै जब रोता था,माँ जगती थी
बिस्तर जब गीला होता था,माँ जगती थी
करती दिन भर काम ,रात को थक जाती थी
दर्द हमें होता था और माँ जग जाती थी
अब जगती है,नींद न आती ,तन जर्जेर है
फिर भी सबके लिए काम, करने तत्पर है
ये ममता ही तो है ,माँ का अमिट प्यार है
माँ बीमार है
उसके बोये हुए वृक्ष फल फूल रहे है
सभी याद रखते है पर कुछ भूल रहे है
सबसे मिलने ,बाते करने का मन करता
देखा उसकी आँखों में संतोष झलकता
और जब सब मिलते है तो हरषा करती है
सब पर आशीर्वादो की बर्षा करती है
अपने बोये सब पोधों से उसे प्यार है
माँ बीमार है
यही प्रार्थना हम करते हैं हे इश्वर
उनका साया बना रहे हम सबके ऊपर
जल्दी से वो ठीक हो जाये पहले जैसी
प्यार,डाट  फटकार लगाये पहले जैसी
फिर से वो मुस्काए स्वर्ण दन्त चमका कर
हमें खिलाये बेसन चक्की, स्वयं बना कर
प्रभु से सबकी यही प्रार्थना बार बार है
माँ बीमार है

शनिवार, 18 अगस्त 2018

केरल का जल प्रलय

क्या प्रभु - रुष्ट क्यों?
वो भी अपने देश से?
हो गयी भूल क्या
इस धरा विशेष पे??

ये कहर - ये प्रलय
इस प्राकृतिक उपहार पर?
क्या मिलेगा यहाँ पर
जीवों के संहार से??

ना यहाँ कोई घोर पाप
ना तो कोई उग्रवाद,
ना तो आपके नियम से
कोई भी है यहाँ विवाद...

भोली-भाली प्रकृति यहाँ
भोले-भाले लोग हैं,
हर तरफ हरियाली जैसे
यही स्वर्गलोक है...

फिर भला ये कोप क्यों
किसलिये जलवृष्टि ये?
हे महादेव यहाँ क्यों 
खोली तीसरी दृष्टि ये??

हैं बहुत से और देश
करते रहते केवल क्लेश,
फिर भी उनके पास क्यों
सुख - संपदा अति विशेष??

क्या यही कलिकाल है?
क्या ये न्याय हो रहा?
देखिये जरा देखिये
क्या ये 'हाय' हो रहा...

यदि ये रीति कलियुगी
आप यही चाहते,
क्षमा करें शंभु ये
हम देह नहीं चाहते...

पाप का विनाश हो
पुण्य प्रफुल्लित रहे,
चाहते हैं आप यदि
कि ये 'चर्चित' रहे...

- विशाल चर्चित

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