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बुधवार, 2 अगस्त 2017

आँखे जाती पनिया है 

दिखाती रंग अजब ,कैसे कैसे दुनिया है 
मुफ्त बदनाम हुआ करती यूं ही मुनिया है 
छुआ न जिंदगी में जिसने निरामिष भोजन ,
ऐसे बन्दे को भी हो जाता  चिकनगुनिया है 
मन्नते पूरी करता ,देख  कर चढ़ावा   है ,
आजकल हो रहा,भगवान तू भी बनिया है 
सरे बाज़ार ,उठा कर के लूट ली जाती ,
बड़ा दुःख देने लगी ,आजकल नथुनिया है 
जहाँ पर महकते ,गुलाब,जूही ,चंपा थे,
वहां पर आजकल उग आयी नागफनियाँ है 
आसमाँ पर चढ़े है भाव अब टमाटर के ,
कभी मुश्किल से मिलता प्याज,लहसुन,धनिया है 
दे दिए जख्म इतने 'घोटू'इस जमाने ने ,
जरा सी बात पर अब आँखें जाती पनिया है 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'
आओ,कुछ इंसानियत दिखाए 

खुदा ने जब कायनात को बनाया 
तो उसे कुदरत के करिश्मो से सजाया  
नदियाएँ बहने लगी 
सबको मीठा जल देने लगी 
फिर वृक्ष बनाये 
उनमे मीठे मीठे फल लगाए 
हवाएं बहने लगी 
सबको ठंडक देने लगी 
पहाड़ो पर हरियाली छाई 
ग्रीष्म,शीत ,बारिश और बसंत ऋतू आई 
सूरज ने प्रकाश और ऊष्मा फैलाई 
चाँद ने रात में शीतलता बरसाई 
फूल महकने लगे 
पंछी चहकने लगे 
सबने ,जितना जो दे सकता था ,
खुले हाथों दिया 
और बदले में कुछ नहीं लिया 
और फिर जब भगवान ने इंसान को बनाया 
तो उसने प्रकृति की इन सारी नियामतों का ,
भरपूर फायदा उठाया 
और बदले में क्या दिया 
पेड़ों को कटवा दिया
पहाड़ों का किया दोहन 
 बिगाड़ दिया पर्यावरण 
स्वार्थ में होकर अँधा  
नदियों का पानी किया गंदा 
एक दुसरे से लड़ने लगा  
जमीन के लिए झगड़ने लगा  
धरम के नाम पर आपस में फूट डाल  ली 
कितनी ही बुराइयां पाल ली 
अब तो इस बैरभाव की इंतहा होने लगी है 
धरती भी परेशां होने लगी है 
अब समय आगया है कि हम कुछ सोचे,विचारे 
अपने आप को सँवारे 
अपने फायदे के लिए ,
दूसरों को ना करे बर्बाद 
इसलिए आप सब से है फ़रियाद 
हम इंसान है,थोड़ी इंसानियत फैलाएं 
भाईचारे से रहे ,एक दुसरे के काम आये 
तो आओ ,ऐसा कुछ करें ,
जिससे हमारी छवि सुधरे 
चलो हम किसी रोते  को हंसाये  
किसी भूखे को पेट भर खिलाये  
किसी बिछुड़े को मिलाते है 
किसी गिरते को उठाते है  
किसी प्यासे की प्यास मिटाये 
किसी दुखी का दर्द हटाए 
किसी असहाय को सहारा दे 
किसी डूबते को किनारा दे 
किसी बुजुर्ग के दुःख काटे 
किसी बीमार को दवा बांटे 
किसी को अन्धकार से उजाले में लाये 
किसी भटके को सही राह दिखलाये 
किसी अबला की इज्जत ,लूटने न  दे 
किसी बच्चे का ख्वाब टूटने न दे  
किसी अनपढ़ को चार लफ्ज सिखला दे 
किसी अंधे को रास्ता पार करा दे 
किसी के रास्ते से बुहार दे कांटे 
जितना भी हो सके,सबमे प्यार बांटे 
करे कोशिश कि कोई लाचार न हो 
कम से कम कुछ  ऐसा करे,
जिससे इंसानियत शर्मशार न हो 
मिलजुल कर भाईचारे से रहें,आपस में न लड़े 
ऐसा कुछ न करे जिसका खामियाजा ,
हमारी आनेवाली पीढ़ी को  भुगतना पड़े  
हर तरफ चैन और अमन रहे छाया 
जिससे ऊपरवाले को भी अफ़सोस न हो ,
कि उसने इंसान को क्यों बनाया?  

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

शनिवार, 29 जुलाई 2017

मटर पनीर 

मैं ,फटे हुए दूध सा ,
दबाया गया ,रसविहीन ,
टुकड़ों में काटा गया पनीर 
तुम ,हरी भरी,गठीली ,
गोलमोल मटर के दानो सी ,
मटरगश्ती करती हुई ,अधीर 
टमाटर की ग्रेवी की तरह ,
लिए हुवे लाली 
यौवन से भरी,मतवाली 
गृहस्थी की कढ़ाई में ,हमारा मिलन 
आपसी नोकझोंक वाली छौंक से ,
मसालेदार हुआ हमारा वैवाहिक जीवन 
आज सुखी है,आबाद है 
उसमे। मटर पनीर वाला स्वाद है 

घोटू 
घर या घरौंदा 

हमें याद आते है वो दिन 
जब जिंदगी के शुरुवाती सफर में 
रहा करते थे हम ,किराये के एक घर में 
तब मन में एक सपना होता था ,
कि कभी ऐसे दिन भी  आएंगे 
जब हम अपना खुदका एक घर बनाएंगे 
और उसे मन मुताबिक़ सजायेंगे 
सबका अपना अपना कमरा होगा 
पूरा घर रौनक से भरा होगा 
और पूरा करने अपना यही ख्वाब 
काम में जुटे रहे दिनरात 
और फिर एक दिन ऐसा भी आया 
जब हमने अपना घर बनाया 
पर तब तक बच्चे ,पढ़ाई के चक्कर में 
रहने लगे हॉस्टल में 
कभी कभी होली दिवाली आते थे 
खुशियों की महक फैलाते थे 
एक भरे पुरे घर का अहसास कराते थे 
और फिर कुछ दिनों में चले जाते थे 
फिर बेटी की शादी हो गयी 
वो अपने ससुराल चली गयी 
बेटों ने विदेशो में जॉब पा लिया 
और वहीँ पर अपना घरसंसार बसा लिया 
और हमारा बड़े अरमान से बनाया,आशियाना 
हो गया  वीराना 
अब उसमे मैं और मेरी पत्नी ,
जब अकेले में काट रहे अपना बुढ़ापा है 
हमें वो किरायेवाला मकान बहुत याद आता है 
जब उस छोटे से घर में ,
चहल पहल और रौनक रहती थी 
खुशियों की गंगा बहती थी 
तब किराये का ही सही ,
वो घर ,घर लगता था ,
और आज ,
जब खुद का इतना बड़ा बंगला है 
पर तन्हाई में लगता एक जंगला है 
जिसमे मैं और मेरी पत्नी ,
कैदी की तरह एक दुसरे की सुनते रहते है 
अपने बड़े अरमान से बुने हुए सपनो को ,
उधेड़ते और फिर से  बुनते रहते है 
हमारे दिल की तरह ,पूरा घर सूना पड़ा है 
कई बार लगता है ,
घर नहीं,एक घरौंदा खड़ा है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
चूना 

१ 
दीवारों पर लग कर मैं दीवारें सजाता हूँ 
लगता हूँ पान में तो होठों को रचाता हूँ 
कोशिशें करता हूँ जो उनको निखारने की,
उनको ये शिकायत है ,मैं चूना लगाता हूँ 
२ 
चूने की दीवारों पर ,जब चूना लगता है ,
तो उनकी रौनक फिर ,और भी निखरती है 
रूप कातिलाना है ,सुन्दर और सुहाना है,
लगती है जालिम जब,सजती  संवरती  है 
मोती सी झलकाती,दन्तलड़ी मुस्काती ,
देखने वालों पर,बिजलियाँ  गिरती है 
सोने सा अंग अंग,भर जाता नया रंग ,
जब थोड़ा अलसा वो ,अंगड़ाई भरती है 

घोटू 

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