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रविवार, 30 नवंबर 2014

आज कल

                   आज कल

हो गया है आजकल कुछ इस तरह का सिलसिला
              छोटे छोटे खेमो  में ,बंटने लगा  है काफिला
जी रहा हर कोई अपनी जिंदगी निज ढंग से ,
     क्या करें शिकवा किसी से ,और किसी से क्या गिला  
अहमियत परिवार , रिश्तों की भुलाती जा रही,
             आत्मकेंद्रित हो रही है आजकल की  पीढ़ियाँ  
इस तरह से कमाने का छारहा सबमे जूनून,
                जुटें है दिनरात चढ़ने तरक्की की सीढ़ियां
पहले कुछ करने की धुन में खपते है दिन रात सब,
              बाद में फिर सोचते है,करे शादी,घर बसा
और उस पर नौकरीपेशा ही बीबी चाहिए ,
              बदलने यूं लग गया है जिंदगी का फलसफा
थके हारे मियां बीबी,आते है जब तब कभी,
              फोन से खाना मंगाया,खा लिया और सो गए
सुबह फिर उठ कर के भागें ,अपने अपने काम पर,
                  सिर्फ सन्डे वाले ही अब पति पत्नी हो गए     
गए वो दिन जब बना पकवान ,सजधज शाम को,
            पत्नियां ,पति की प्रतीक्षा ,किया करती प्यार से
पति आते,करते गपशप,चाय पीते चाव से,
            रात को खाना खिलाती थी ,पका ,मनुहार से
आजकल बिलकुल मशिनी हो गयी है जिंदगी ,
             किसी के भी पास ,कोई के लिए ना वक़्त है
बहन,भाई,बाप,माँ,ये सभी रिश्ते व्यर्थ है ,
              मैं हूँ और मुनिया मेरी ,परिवार इतना फ़क़्त है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोचें तो वो कि जिन्हें है चाहत छूने की आसमान...


सोचें तो वो
कि जिन्हें है चाहत
छूने की आसमान,
कि जो पा लेना
चाहते हैं जिन्दगी में
कामयाबियों का जहान...
हमारा क्या है
आदमी हैं
फकीर मिजाज के,
अपना काम करेंगे
और दुनिया से
चुपचाप चलते बनेंगे...
वक्त की मिट्टी तले
अगर दफन भी हुए तो
वक्त को ही चिढ़ायेंगे
इस जहां पर मुस्कुरायेंगे,
कि अब तू सोच और
लगा हिसाब कि
खो दिया क्या और किसे...
हमें क्या गम?
हम क्यों हो दुखी?
हमारा माल हमारे पास
नहीं बिका तो नहीं बिका,
तमाम कोयलों में एक हीरा
किसी को पूरी दुनिया में
नहीं दिखा तो नहीं दिखा,
सिर्फ कामयाबी या
फायदे के लिये हमारा सिर
किसी के सामने
नहीं झुका तो नहीं झुका,
हम तो हैं बहुत खुश
इसी में ही कि
किसी को मस्का
लगाये बगैर भी
हमारा कोई काम
नहीं रुका तो नहीं रुका...

- विशाल चर्चित

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

खड़े खड़े

               खड़े खड़े

हमें है याद स्कूलमे,शैतानी जब भी करते थे,
              सज़ा अक्सर ही पाते थे,बेंच पर हम खड़े होकर
गए कॉलेज तो तकते थे,लड़कियों को खड़े होकर,
              नया ये शौक पाला  था ,जवानी में बड़े होकर
हुस्न कोई अगर हमको ,कहीं भी है नज़र आता ,
              अदब से हम खड़े होकर ,सराहा करते ,ब्यूटी है
ट्रेन लोकल में या बस में,सफर  करते खड़े होकर ,
              खड़े साहब के आगे हो ,निभाया करते ड्यूटी  है
मुसीबत लाख आये पर ,तान सीना खड़े रहते ,
               बहुत है होंसला जिनमे,उन्हें सब मर्द कहते है
किसी की भी मुसीबत में,खड़े हो साथ देते है ,
               दयालू लोग वो  होते, उन्हें  हमदर्द   कहते  है
बनो नेता ,करो मेहनत ,इलेक्शन में खड़े  होकर,
              जीत कर पांच वर्षों तक ,बैठ सकते हो कुर्सी पर
बड़े एफिशिएंट कहलाते ,तरक्की है सदा पाते ,
               काम  घंटों का मिनटों में,जो निपटाते खड़े रह कर
खड़े हो जिंदगी की जंग को है  जीतना पड़ता ,
               आदमी रहता है सोता ,अगर यूं ही पड़ा  होता      
खड़े होना सज़ा भी है,खड़े होना मज़ा भी है,
                जागता आदमी है जब ,तभी है वो खड़ा होता
इशारे उनकी ऊँगली के ,और हम नाचे खड़े होकर ,
                  जवानी में खड़े होकर ,बहुत की उनकी खिदमत है
आजकल तो ठीक से भी,खड़े हम हो नहीं पाते ,
                    बुढ़ापा ऐसा आया है,  हो गयी पतली हालत है

मदन  मोहन बाहेती'घोटू'     

जिंदगी -दिन ब दिन

              जिंदगी -दिन ब दिन 

हरेक दिन कम हो रहा है ,जिंदगी का एक दिन
एक दिन  फिर आएगा वो,,हम न होंगे  एक दिन
हँसते रोते ,हमने यूं ही, काट दी ,ये  जिंदगी ,
साथ में थोड़े तुम्हारे ,और कुछ तुम्हारे  बिन
मस्तियों  में गुजारा करते थे हमतो अपने दिन ,
क्षीण होते जारहे है ,आजकल हम दिन बदिन
हरेक दिन बस इस तरह का चला करता सिलसिला ,
कोई दिन होता है अच्छा,कोई होता  बुरा दिन
हुए थे जिस रोज पैदा ,मनाते है हम जशन ,
श्राद्ध बच्चे  मनाएंगे, साल में फिर एक दिन

घोटू

कबूतर कथा

                       कबूतर कथा

एक कबूतर गर न उड़ता ,हाथ से मेहरुन्निसा के ,
            प्यार की एक दास्ताँ का ,फिर नहीं आगाज होता
संगेमरमर का तराशा और बेहद खूबसूरत,
            प्यार की प्यारी निशानी ,ताज भी ना आज होता
शरण में आये कबूतर को बचा राजा शिवि ने ,
             बाज को निज मांस देकर ,धर्म था  अपना निभाया
एक कबूतर वहां भी था,जहाँ बर्फानी गुफा में ,
               पार्वती जी को शिवा ने,अमर गाथा को सुनाया
न तो उड़ते अधिक  ऊंचे ,ना किसी को छेड़ते है,
                दाना जो भी उन्हे मिलता ,उसे खाकर दिन बिताते 
न तो कांव कांव करते ,और ना ज्यादा चहकते ,
                  पंछी मध्यम वर्ग के  ये बस 'गुटर गूं 'किये जाते
जब न टेलीफोन होते ,तो तड़फते प्रेमियों के ,
                गर कबूतर नहीं होते ,तो संदेशे  कौन  लाते 
 बहुत सीधे और सादे,काम से निज काम रखते ,
                 इसलिए ही तो कबूतर ,दूत शांति के कहाते 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


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