संबंध
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संबंध यह जगत एक आईना है ही तो है हर रिश्ते में ख़ुद को देखे जाते हैं चुकती
नहीं अनंत चेतना हज़ार-हज़ार पहलू उभर जाते हैं जन्म पर जन्म लेता है मानव कि
कभी ...
10 घंटे पहले
प्रकाशित काव्य संग्रह को आशीर्वाद देती पूज्यनीया माँजी
श्रेष्ठ कवियत्री वंदना गुप्ता जी के द्वारा काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" में प्रकाशित मेरी कविताओं की समीक्षा .
.........उत्तर प्रदेश में रहने वाले प्रशासनिक अधिकारी श्री अशोक कुमार शुक्ला जी की कवितायेँ यथार्थ बोध कराती हैं ."इक्कीसवां बसंत" कविता में कवि ने बताया कि कैसे युवावस्था में मानव स्वप्नों के महल खड़े करता है और जैसे ही यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रखता है तब पता चलता है कि वास्तव में जीवन खालिस स्वप्न नहीं . "कैसा घर" कविता व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष है .तो दूसरी तरफ "गुमशुदा" कविता में रिश्तों की गर्माहट ढूँढ रहे हैं जो आज कंक्रीट के जंगलों में किसी नींव में दब कर रह गयी है .इनके अलावा "तुम", "दूरियां", "परिक्रमा" ,"बिल्लियाँ" आदि कवितायेँ हर दृश्य को शब्द देती प्रतीत होती हैं यहाँ तक कि बिल्लियों के माध्यम से नारी के अस्तित्व पर कैसा शिकंजा कसा जाता है उसे बहुत ही संवेदनशील तरीके से दर्शाया है........श्रीमती वन्दना गुप्ता जी आपका आभार कि आपने संपूर्ण कविता संग्रह के संदर्भ में मेरी कविताओं को गहनता से पढकर सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की। "इक्कीसवां बसंत" कविता की पृष्ठभूमि के लिए इसी ब्लॉग पर लिंक है पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ ..."चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श परऔर गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँमैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दरकितना उडा जा सकता हैआखिर क्यों नहीं सहा जाताअपने पिंजरे में रहकर भीखुश रहने वालीचिड़ियों का चहचहाना"तो दूसरी तरफ "वेताल" सरीखी कविता हर जीवन का अटल सत्य है. हर कविता के माध्यम से कुछ ना कुछ कहने का प्रयास किया है जो उनके लेखन और सोच की उत्कृष्टता को दर्शाता है .
और यह रही "बिल्लियाँ" नामक पूरी कविता----
बिल्लियॉ
खूबसूरत पंखों वाली नन्हीं चिडियों को
एक पिंजरें में कैद कर लिया था हमने ,
क्योंकि उनके सजीले पंख लुभाते थे हमको,
इस पिंजरे में हर रोज दिये जाते थे
वह सभी संसाधन
जो हमारी नजर में
जीवन के लिये जरूरी हैं,
लेकिन कल रात बिल्ली के झपटटे ने
नोच दिये हैं चिडियों के पंख
सहमी और गुमसुम हैं
आज सारी चिडिया
और दुबककर बैठी हैं पिजरें के कोने में,
पहले कई बार उडान के लिये मचलते
"चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श पर
और गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँ
मैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दर
कितना उडा जा सकता है
आखिर क्यों नहीं सहा जाता
अपने पिंजरे में रहकर भी
खुश रहने वाली
चिड़ियों का चहचहाना"
इस कविता की पृष्ठभूमि की चर्चा फिर कभी इसी ब्लॉग पर करूंगा
वन्दना जी पुनः आभारअगर आप में से कोई भी इस काव्य संग्रह को पढना चाहता है तो उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" प्राप्त करने के लिए लेखक से अथवा सत्यं शिवम् जी से इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं ..........9934405997
........या इस मेल पर संपर्क किया जा सकता है .contact@sahityapremisangh.com
तय तो यह था...
तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल
तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल
अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!प्रस्तुतकर्ता sandhyagupta पर ८:३२:०० पूर्वाह्न
सचमुच!
तय तो यह था कि
तुम इलाज के लिए गयी थी
सो लौट आती सकुशल
परन्तु ...तुम्हीं सो गये दास्तां कहते कहते....
ईश्वर डा0 सन्ध्या गुप्ता जी को स्वर्ग में स्थान दे इसी हार्दिक श्रद्वांजलि के साथ......