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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

सोना या पीतल 

मैं यही जानने बेकल हूं 
मैं सोना हूं या पीतल हूं 

दोनों एक जैसे रंगत में 
पर फर्क बहुत है कीमत में 
एक से बनते हैं आभूषण 
एक से बनते घर के बर्तन 
एक से गौरी का तन सजता 
एक जीवन की आवश्यकता 
बर्तन में पकता है भोजन 
और खाना खाते हैं सब जन 
पीतल के ही लोटा गिलास 
जिनसे पानी पी, मिटे प्यास 
अग्नि पर नित्य चढ़ा करते 
होते हैं शुद्ध रोज मँझते 
अति आवश्यक है जीवन में 
है बहुत मधुरता खनखन में 
सोना पीतल सा रंगीला 
यह भी पीला वह भी पीला 
लेकिन सोना आभूषण बन 
करता सज्जित नारी का तन
गौरी सोलह सिंगार करे
हर कोई स्वर्ण से प्यार करें 
पर जब होता कोई उत्सव 
तब दिखता सोने का वैभव 
वरना अक्सर चोरी डर से 
वह नहीं निकलता लॉकर से 
श्रृंगार प्रिया का सजवाता 
जब होता मिलन ,उतर जाता 
बहुमूल्य न ,बन बहुउपयोगी 
जीना मेरी किस्मत होगी 
काम आता सबके संग पल-पल 
मैं स्वर्ण न, अच्छा हूं पीतल

मदन मोहन बाहेती घोटू 

रविवार, 9 मार्च 2025

कोई उलाहना नहीं चाहिए 

चाह थी कुछ करूं, मैंने कोशिश की,
 कर न पाया तो बहाना नहीं चाहिए 
मैं क्यों क्या किया और क्या ना किया ,
यह किसी को दिखाना नहीं चाहिए
 मैंने यह न किया, मैंने वह ना किया
 मुझको कोई उलाहना नहीं चाहिए 
मैंने जो भी किया, सच्चे दिल से किया
 मुझको कोई सराहना नहीं चाहिए
 काम आऊं सभी के यह कोशिश थी 
मुझसे जो बन सका मैंने वह सब किया 
चाहे अच्छा लगा या बुरा आपको 
तुमने जैसे लिया ,आपका शुक्रिया

मदन मोहन बाहेती घोटू 
नया सवेरा 

चलो जिंदगी की, एक रात गुजरी,
आएगा कल फिर ,नया एक सवेरा 
प्राची में फिर से, प्रकटेगा सूरज
 चमकेगी किरणें ,मिटेगा अंधेरा 

बादल गमों के, बिखर जाएंगे सब 
खुशी के उजाले, नजर आएंगे अब 

वृक्षों में पत्ते ,विकसेंगे फिर से ,
चहचहाते पंछी, करेंगे बसेरा 
चलो जिंदगी की, एक रात गुजरी,
आएगा फिर कल, नया एक सवेरा 

आशा के पौधे, पनपेंगे फिर से ,
आएगा प्यारा ,बहारों का मौसम 
महकेगी बगिया ,कलियां खिलेगी,
 गूंजेगा फिर से , भ्रमरों का गुंजन

 गुलशन हमारा, गुलजार होगा
 फिर से सुहाना ,यह संसार होगा 

शुभ आगमन होगा, अच्छे दिनों का
 बरसाएगा सुख ,किस्मत का फेरा 
चलो जिंदगी की, एक रात गुजरी,
आएगा कल फिर,नया एक सवेरा

मदन मोहन बाहेती घोटू 

शनिवार, 8 मार्च 2025

कबूतर को दाना 


 खिलाते जो हम हैं कबूतर को जाना 

एक दिन हमारे दिल ने यह जाना 

हम जो ये सारा करम कर रहे हैं 

जिसे सोचते हम धरम कर रहे हैं 

धर्म ऐसा कैसा कमा हम रहे हैं 

सभी को निठल्ला बना हम रहे हैं 

जिन्हें पेट भरने ,कमाने को दाना 

सवेरे को उड़कर के पड़ता था जाना

उन्हें पास मिल जाता है ढेरों दाना 

मुटिया रहे जिसको खा वो रोजाना 

खिलाने का दाना,करम आपका यह 

धर्म का नहीं है, करम पाप का यह

हुए जा रहे हैं आलसी सब कबूतर 

फैला रहे गंदगी घर-घर जाकर

मानो न मानो मगर सच यही है

इनकी नस्ल आलसी हो रही है


मदन मोहन बाहेती घोटू

बुढ़ापे का प्यार 

जवानी का प्यार 
बहार ही बहार 
सौंदर्य का आकर्षण 
प्रेमी हृदयों की तड़पन 
यौवन की आकुलता 
मिलन की आतुरता 
उबलता हुआ जोश 
भोग का संयोग 
गर्म रक्त का प्रवाह 
चाह और उत्साह 
पर बढ़ती हुई उम्र के साथ
 बदल जाते हैं हालात 
जवानी का आकर्षण 
बन जाता है समर्पण 
तन का क्षरण हो जाता 
रिश्तो मेंअपनापन आता 
फिर आगे बढ़ता सिलसिला 
बच्चे छोड़ देते हैं घोसला
 बनते एक दूसरे की जरूरत 
प्रकट होती है असली मोहब्बत
बुढ़ापे का दर्द जब सहा नहीं जाता
 एक दूसरे के बिन रहा नहीं जाता 
पैरों में दर्द है पत्नी चल नहीं पाती 
फिर भी पति के लिए चाय बनाती 
पति पत्नी के सर बाम मलता है 
हमेशा उसके इशारों पर चलता है 
अपना सुख-दुख आपस बांटते हैं 
एक दूसरों के पैर के नाखून काटते हैं
बुढ़ापे की मजबूरी में होता है यह हाल 
दोनों रखते हैं एक दूसरे का ख्याल 
जब परिवार वाले कर लेते हैं किनारा 
दोनों बन जाते हैं एक दूसरे का सहारा 
अगर कभी हो भी जाती है खटपट 
तो झगड़ा झट से जाता हैं निपट 
क्योंकि दोनों ही सो नहीं पाते 
बिना सुने एक दूसरे के खर्राटे 
सच की उम्र का बड़ा हसीं दौर है 
बुढ़ापे के प्यार मजा ही कुछ और है 

मदन मोहन बाहेती घोटू 

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