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रविवार, 19 जनवरी 2025

चौरासी के फेरे में 

पल-पल करके जीवन बीता 
हर दिन सांझ सवेरे में 
तिर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

बादल जैसे आए बरस 
और बरस बरस कर चले गए 
गई जवानी आया बुढ़ापा 
उम्र के हाथों छले गए 
मर्णान्तक बीमारी आई ,
आई, आकर चली गई 
ढलते सूरज की आभा सी 
उम्र हमारी ढली गई 
यूं ही सारी उम्र गमा दी ,
फंस कर तेरे, मेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

चौरासीवां बरस लगा अब
आया परिवर्तन मन में 
भले बुरे कर्मों का चक्कर 
बहुत कर लिया जीवन में 
पग पग पर बाधाएं आई,
 विपदाओं से खेले हैं 
इतने खट्टे मीठे अनुभव
 हमने अब तक झेले हैं 
अब जाकर के आंख खुली है 
अब तक रहे अंधेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई 
चौरासी के फेरे में 

 अब ना मोह बचा है मन में 
ना माया से प्यार रहा 
अपने ही कर रहे अपेक्षित 
नहीं प्रेम व्यवहार रहा 
अब ना तन में जोश बचा है 
पल-पल क्षरण हो रहा तन 
अब तो बस कर प्रभु का सिमरन 
काटेंगे अपना जीवन 
जब तक तेल बचा, उजियारा
 होगा रैन बसेरे में 
तीर्यासी की उम्र हो गई
 चौरासी के फेरे में 

मदन मोहन बाहेती घोटू 

मैं


मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं,

 मुझको है संतोष इसी से 

सबकी अपनी सूरत,सीरत

 क्यों निज तुलना करूं किसी से


 ईश्वर ने कुछ सोच समझकर 

अपने हाथों मुझे गढ़ा है 

थोड़े सद्गुण ,थोड़े दुर्गुण

 भर कर मुझको किया बड़ा है 

अगर चाहता तो वह मुझको 

और निकृष्ट बना सकता था 

या चांदी का चम्मच मुंह में,

 रखकर कहीं जना सकता था 

लेकिन उसने मुझको सबसा 

साधारण इंसान बनाया 

इसीलिए अपनापन देकर 

सब ने मुझको गले लगाया 

वरना ऊंच-नीच चक्कर में,

 मिलजुल रहता नहीं किसी से 

मैं जो भी हूं जैसा भी हूं ,

मुझको है संतोष इसी से 


प्रभु ने इतनी बुद्धि दी है 

भले बुरे का ज्ञान मुझे है 

कौन दोस्त है कौन है दुश्मन 

इन सब का संज्ञान मुझे है 

आम आदमी को और मुझको 

नहीं बांटती कोई रेखा 

लोग प्यार से मुझसे मिलते

 करते नहीं कभी अनदेखा 

मैं भी जितना भी,हो सकता है

 सब लोगों में प्यार लुटाता 

सबकी इज्जत करता हूं मैं 

इसीलिए हूं इज्जत पाता 

कृपा प्रभु की, मैंने अब तक,

जीवन जिया, हंसी खुशी से 

मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं 

मुझको है संतोष इसी  से


मदन मोहन बाहेती घोटू

मंगलवार, 14 जनवरी 2025

उतरायणी पर्व

उतरायणी है पर्व हमारा,

समता को दर्शाता है।

कहीं मनाते लोहड़ी इस दिन,

कोई बिहू ‌मनाता है।

महास्नान गंगासागर में,

जो उतरायणी को करता।

जप,तप,दान और तर्पण कर,

मानस मन उज्जवल होता।

देवालय में लगते मेले,

तिल, गुड़ के पकवान बनाते।

इसी तरह हो मीठा जीवन,

आपस में सब मिलजुल गाते।

आटे में गुड़ मिला गूंथकर,

घुघुते और खजूर बनाते।

इन्हें पिरोकर माला में फिर,

बच्चे काले कौवा गाते।

त्यौहारों का देश हमारा,

सदा यहां खुशहाली है।

मिलजुल कर त्यौहार मनाते,

भारत की शान निराली है।



हेमलता सुयाल

   स॰अ॰

रा॰प्रा॰वि॰जयपुर खीमा

क्षेत्र-हल्दवानी

जिला-नैनीताल

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

मेहमान का सत्कार

मेरे एक मित्र ने बात चीत में यह बताया कि वह किसी रिश्तेदार  के घर ,रात्रि विश्राम के लिए गये थे।

शेष उनके अनुभव कुछ ऐसे थे। 


।।।।।मेहमान का सत्कार।।। 


बात चीत होगी जी भरकर। 

पहुंचा था मैं यही सोचकर। 

कुशल क्षेम जल पान हुआ। 

भोजन का निर्माण हुआ। 


बैठक कक्ष में खुल गया टी0वी0।

साथ-साथ बैठ गये तब हम भी।

सब के हाथ तब फोन आ गया। 

टी0वी0 का आभाष चला गया। 


सब टप-टप करने लगे फोन पर। 

किसकी किसको सुध वहां पर? 

व्यक्ति पांच पर सभी अकेले। 

थे गुरु को हाथ उठाये चेले।


सब दुनिया से बेखबर वे। 

भ्रांति लोक में पसर गये वे। 

मन ही मन वे कभी मुस्कराते। 

कभी मुख भाव कसैला लाते। 


फिर मैंने भी फोन उठाया। 

भ्रांति लोक में कदम बढाया। 

पल ,मिनट,घंटे बीत गये। 

यहां किसी को सुध नहीं रे। 


तभी किसी का फोन बज उठा। 

अनचाहे वह कान में पहुंचा। 

बात हुई कुछ झुंझलाहट में। 

नजर गयी दीवाल घडी़ में। 


रात्रि के दस बज गये थे। 

शीतल सब पकवान पेड़ थे।  

इतनी जल्दी दस बज गये। 

व्यन्जन सारे गर्म किये गये


खाना खाया फिर सो गये। 

सुबह समय से खडे हो गये। 

फिर मैं अपने घर आ गया। 

सत्कार मेरे ह्रदय छा गया। 




।।।विजय प्रकाश रतूडी़।।।

शनिवार, 4 जनवरी 2025

मेरे महबूब न मांग 

मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

बड़े जलते हुए अंगारे थे हम जवानी में 
लगा हम आग दिया करते ठंडे पानी में
 नहीं कुछ रखा हैअब बातें इन पुरानी में

 ऐसी जीवन में बुढ़ापे में अड़ा दी है टांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

गए वह दिन जब मियां फाख्ता मारा करते आती जाती हुई लड़कियों को ताड़ा करते 
अब तो जो पास में है उससे ही गुजारा करते

पड़े ढीले ,मगर मर्दानगी का करते स्वांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

हर एक बॉल पर हम मार देते थे छक्का  
हमारा जीतना हर खेल में होता पक्का
मगर इस बुढापे ने हमे कहीं का ना रक्खा 

जरा सी दूरी तक भी अब न लगा सकते 
छलांग 
मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग 

हमारे साथ नहीं सबके साथ यह होता 
अपनी कमजोरियों से करना पड़ता समझौता 
आदमी अपनी सारी चुस्ती फुर्ती है खोता 

हरकतें करने लगता बुढ़ापे में ऊट पटांग 
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

मदन मोहन बाहेती घोटू

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