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गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

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हमारी जिंदगी

 हमारी जिंदगी भी इस तरह के मोड़ लेती है 
 किसी अनजान के संग दिल के रिश्ते जोड़ लेती है
 
 कभी राहों की बाधाएं और रोड़ों पर अटक जाती 
 कभी अनजान रस्तों पर, रुक जाती, भटक जाती 
 कभी दुर्गम कठिन पथ पर ,सहज से दौड़ लेती है हमारी जिंदगी भी किस तरह के मोड़ लेती है 
 
कभी सुख में, खुशियों की, फुहारों से भिगो देती 
परेशां होती ,आंखों में ,भरे आंसू ,वो रो देती 
कभी मुश्किल दुखों की बाढ़ से झिंझोड़ देती है 
हमारी जिंदगी भी किस तरह के मोड़ लेती है 

मोह माया के फेरे में उम्र यूं ही गुजर जाती 
कभी थोड़ी संवर जाती ,कभी थोड़ी बिखर जाती 
बहुत सी खट्टी मीठी यादें पर वह छोड़ देती है 
हमारी जिंदगी भी इस तरह के मोड़ लेती है 

बड़ी मुश्किल पहेली यह कठिन है बूझना इसका 
मगर उलझा ही रहता है ,दीवाना हर जना इसका 
जिएं लंबा यही चाहत मौत से होड़ लेती है 
हमारी जिंदगी में किस तरह के मोड़ लेती है

मदन मोहन बाहेती घोटू

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

Fwd:

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---------- Forwarded message -


मैं अस्सी का
 
अब मैं बूढ़ा बैल हो गया ,नहीं काम का हूँ किसका
आज हुआ हूँ  मैं अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

धीरे धीरे  बदल गए सन ,और सदी भी बदल गयी
बीता बचपन,आयी जवानी ,वो भी हाथ से निकल गयी
गयी लुनाई ,झुर्री  छायी ,बदन मेरा बेहाल  हुआ
जोश गया और होश गया और मैं बेसुर ,बेताल हुआ
सब है मुझसे ,नज़र बचाते ,ना उसका मैं ना इसका
आज हुआ मैं हूँ अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

 अनुभव में समृद्ध वृद्ध मैं ,लेकिन मेरी कदर नहीं
मैंने जिनको पाला पोसा ,वो भी  लेते खबर नहीं
नहीं किसी से कोई अपेक्षा ,किन्तु उपेक्षित सा बन के
काट रहा ,अपनी बुढ़िया संग ,बचेखुचे दिन जीवन के
उन सब का मैं आभारी हूँ ,प्यार मिला जब भी जिसका
आज हुआ हूँ मैं अस्सी का ,जन्म सन बय्यालीस का

बढ़ी उमरिया ,चुरा ले गयी ,चैन सभी मेरे मन का
अरमानो का बना घोंसला ,आज हुआ तिनका तिनका
यादों के सागर में मन की ,नैया डगमग करती है
राम भरोसे ,धीरे धीरे ,अब वो तट को बढ़ती है
मृत्यु दिवस तय है नियति का,कोई नहीं सकता खिसका
आज हुआ हूँ मैं अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शनिवार, 27 नवंबर 2021

बुढ़ापा ऐसा आया रे

लगा है जीवन देने त्रास
रहा ना कोई भी उल्लास
मन मुरझाया,तन अलसाया, 
गया आत्मविश्वास 
सांस सांस ने हो उदास ,
अहसास दिलाया रे
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे 

बदलते ढंग, मोह हैभंग 
समय संग,जीवन है बेरंग 
व्याधियां रोज कर रही तंग 
बची ना कोई तरंग ,उमंग 
रही न तन की तनी पतंग ,
उमर संग ढलती काया रे 
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे 

बड़ा ही आया वक्त कठोर 
श्वास की डोर हुई कमजोर 
सूर्य ढलता पश्चिम की ओर 
नजर आता है अंतिम छोर
तन का पौर पौर अब तो 
लगता कुम्हलाया रे 
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे

ना है विलास ना भोग
 पड़ गए पीछे कितने रोग 
 साथ समय के साथी छूटे 
 लगे बदलने  लोग
अपनों के बेगानेपन ने 
बहुत सताया रे
वक्त ये कैसा आया रे
बुढापा हम पर छाया रे


 हमारे मन में यही मलाल
 रहे ना पहले से सुर ताल
 हुई सेहत की पतली दाल 
 नहीं रख पाते अपना ख्याल 
 बदली चाल ढाल में  अब ना 
 जोश बकाया रे
 वक्त ये कैसा आया रे
 बुढापा हम पर छाया रे


 रहा ना जोश,बची ना आब
 बहुत सूने सूने है ख्वाब 
 अकेले बैठे हम चुपचाप 
 बस यही करते रहे हिसाब 
 पूरे जीवन में क्या खोया 
 और क्या पाया रे 
 वक्त ये कैसा आया रे 
 बुढ़ापा हम पर छाया रे

मदन मोहन बाहेती घोटू

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