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बुधवार, 1 दिसंबर 2021

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मैं अस्सी का
 
अब मैं बूढ़ा बैल हो गया ,नहीं काम का हूँ किसका
आज हुआ हूँ  मैं अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

धीरे धीरे  बदल गए सन ,और सदी भी बदल गयी
बीता बचपन,आयी जवानी ,वो भी हाथ से निकल गयी
गयी लुनाई ,झुर्री  छायी ,बदन मेरा बेहाल  हुआ
जोश गया और होश गया और मैं बेसुर ,बेताल हुआ
सब है मुझसे ,नज़र बचाते ,ना उसका मैं ना इसका
आज हुआ मैं हूँ अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

 अनुभव में समृद्ध वृद्ध मैं ,लेकिन मेरी कदर नहीं
मैंने जिनको पाला पोसा ,वो भी  लेते खबर नहीं
नहीं किसी से कोई अपेक्षा ,किन्तु उपेक्षित सा बन के
काट रहा ,अपनी बुढ़िया संग ,बचेखुचे दिन जीवन के
उन सब का मैं आभारी हूँ ,प्यार मिला जब भी जिसका
आज हुआ हूँ मैं अस्सी का ,जन्म सन बय्यालीस का

बढ़ी उमरिया ,चुरा ले गयी ,चैन सभी मेरे मन का
अरमानो का बना घोंसला ,आज हुआ तिनका तिनका
यादों के सागर में मन की ,नैया डगमग करती है
राम भरोसे ,धीरे धीरे ,अब वो तट को बढ़ती है
मृत्यु दिवस तय है नियति का,कोई नहीं सकता खिसका
आज हुआ हूँ मैं अस्सी का ,जन्मा सन बय्यालीस का

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शनिवार, 27 नवंबर 2021

बुढ़ापा ऐसा आया रे

लगा है जीवन देने त्रास
रहा ना कोई भी उल्लास
मन मुरझाया,तन अलसाया, 
गया आत्मविश्वास 
सांस सांस ने हो उदास ,
अहसास दिलाया रे
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे 

बदलते ढंग, मोह हैभंग 
समय संग,जीवन है बेरंग 
व्याधियां रोज कर रही तंग 
बची ना कोई तरंग ,उमंग 
रही न तन की तनी पतंग ,
उमर संग ढलती काया रे 
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे 

बड़ा ही आया वक्त कठोर 
श्वास की डोर हुई कमजोर 
सूर्य ढलता पश्चिम की ओर 
नजर आता है अंतिम छोर
तन का पौर पौर अब तो 
लगता कुम्हलाया रे 
वक्त यह कैसा आया रे 
बुढ़ापा तन पर छाया रे

ना है विलास ना भोग
 पड़ गए पीछे कितने रोग 
 साथ समय के साथी छूटे 
 लगे बदलने  लोग
अपनों के बेगानेपन ने 
बहुत सताया रे
वक्त ये कैसा आया रे
बुढापा हम पर छाया रे


 हमारे मन में यही मलाल
 रहे ना पहले से सुर ताल
 हुई सेहत की पतली दाल 
 नहीं रख पाते अपना ख्याल 
 बदली चाल ढाल में  अब ना 
 जोश बकाया रे
 वक्त ये कैसा आया रे
 बुढापा हम पर छाया रे


 रहा ना जोश,बची ना आब
 बहुत सूने सूने है ख्वाब 
 अकेले बैठे हम चुपचाप 
 बस यही करते रहे हिसाब 
 पूरे जीवन में क्या खोया 
 और क्या पाया रे 
 वक्त ये कैसा आया रे 
 बुढ़ापा हम पर छाया रे

मदन मोहन बाहेती घोटू

रविवार, 14 नवंबर 2021

जिंदगी जगमग दिवाली हो गई 

तूने घूंघट हटाया चंदा उगा,धूप भी अब बन गई है चांदनी 
तेरे अधुरो का मधुर स्पर्श पा, शब्द हर एक बन गया है रागिनी 
जब से तेरे कपोलों को छू लिया, हाथ में खुशबू गुलाबी सन गई
हुईं हलचल दिल मचलने लग गया, भावनाएं कविताएं बन गई 
छू कर तेरी रेशमी सी हथेली, हरी मेहंदी, लाल रंग में रच  गई 
देख मुझको मुस्कुरा दी तू जरा ,सपनों की बारात मेरी सज गई 
तेरी नज़दीकियों के एहसास से, मेरी सब सांसे सुहागन हो गई 
फूल मन के चमन में खिलने लगे ,बावरी यह उम्र दुल्हन हो गई 
ऐसे बिखरे फूल हरसिंगार के ,हवाएं मादक निराली हो गई
आशाओं के दीप रोशन हो गए, जिंदगी जगमग दिवाली हो गई

मदन मोहन बाहेती घोटू
कितना बहुत होता है 

संतोष जब अपनी परिधि को तोड़ता है 
तो वह कुछ और पाने के लिए दौड़ता है 
जब भी चाह और अभिलाषाएं बलवती होती है 
तभी नए अन्वेषण और प्रगति होती है 
इस और की चाह ने हमें बहुत कुछ दिया है 
आदमी को चांद तक पहुंचा दिया है 
अभी जितना है अगर उतना ही होता 
तो विज्ञान इतना आगे नहीं बढ़ा होता 
और की चाह जीवन में गति भरती है 
और की कामना, कर्म को प्रेरित करती है 
इसलिए आदमी को चाहिए कुछ और 
यह मत पूछो कितना बहुत होता है ,
क्योंकि और का नहीं है कोई छोर 
कल मेरे पास बाइसिकल थी 
मुझे लगा इतना काफी नहीं है 
मैंने और की कामना की 
स्कूटर आइ, फिर मारुति फिर बीएमडब्ल्यू 
और फरारी की चाह है 
यही प्रगति की राह है

मदन मोहन बाहेती घोटू
आज ठीक से नींद ना आई

आज ठीक से नींद ना आई, रहा यूं ही में सोता जगता रहे मुझे सपने आ ठगते,मैं सपनों के पीछे भगता 

नींद रही उचटी उचटी सी ,बिखरे बिखरे सपने आए खट्टी मीठी यादें लेकर, कुछ बेगाने अपने आए 
कभी प्रसन्न रहा मैं हंसता ,कभी क्रोध से रहा सुलगता रात ठीक से नींद ना आई, रहा रात भर सोता जगता

जाने कहां कहां से आई ,कितनी बातें नई पुरानी 
दाल माखनी सी यादें थी ,पकी खयालों की बिरयानी सपनों ने मिलकर दावत दी ,सब पकवान रहा मैं छकता राज ठीक से नींद ना आई,रहा रात भर सोता जगता

मदन मोहन बाहेती घोटू

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