वो दिन कहाँ गये
जब रोज गाँव के कूवे से ,आया करता ताज़ा पानी
मिटटी के मटके में भर कर ,रखती जिसको दादी,नानी
घर में एक जगह ,जहां रखते ,मटका, ताम्बे का हंडा थे
रहता पानी पीने का था ,हम कहते उसे परिंडा थे
धो हाथ इसे छुवा करते ,यह जगह बहुत ही थी पावन
घर में जब दुल्हन आती थी ,तो करती थी इसका पूजन
अब आया ऐसा परिवर्तन ,बिगड़ी है सभी व्यवस्थायें
प्लास्टिक की बोतल में कर ,अब बिकने को पानी आये
था नहीं प्रदूषण उस युग में ,जब हम निर्मल जल पीते थे
आंगन में नीम और पीपल की ,हम शुद्ध हवा में जीते थे
तुलसी ,अदरक कालीमिर्ची ,का काढ़ा होता एक दवा
जिसको दो दिन पी लेने से ,हो जाता था बुखार हवा
ना एक्सरे ,ना ही खून टेस्ट ,ना इंजेक्शन का कोई ज्ञान
कर नाड़ी परीक्षण वैद्यराज ,करते थे रोगों का निदान
पर जैसे जैसे प्रगति पर हम हुए अग्रसर ,पिछड़ गये
करते इलाज सब मर्जों का ,वो देशी नुस्खे बिछड़ गये
आती है जब जब याद मुझे ,अपने गाँव की ,बचपन की
मुझको झिंझोड़ती चुभती है, जगती अंतरपीड़ा मन की
शंशोपज में डूबा ये मन ,ये निर्णय ना ले पाया है
ये कैसी प्रगति है जिसमे ,कितना ,कुछ हमने गमाया है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
जब रोज गाँव के कूवे से ,आया करता ताज़ा पानी
मिटटी के मटके में भर कर ,रखती जिसको दादी,नानी
घर में एक जगह ,जहां रखते ,मटका, ताम्बे का हंडा थे
रहता पानी पीने का था ,हम कहते उसे परिंडा थे
धो हाथ इसे छुवा करते ,यह जगह बहुत ही थी पावन
घर में जब दुल्हन आती थी ,तो करती थी इसका पूजन
अब आया ऐसा परिवर्तन ,बिगड़ी है सभी व्यवस्थायें
प्लास्टिक की बोतल में कर ,अब बिकने को पानी आये
था नहीं प्रदूषण उस युग में ,जब हम निर्मल जल पीते थे
आंगन में नीम और पीपल की ,हम शुद्ध हवा में जीते थे
तुलसी ,अदरक कालीमिर्ची ,का काढ़ा होता एक दवा
जिसको दो दिन पी लेने से ,हो जाता था बुखार हवा
ना एक्सरे ,ना ही खून टेस्ट ,ना इंजेक्शन का कोई ज्ञान
कर नाड़ी परीक्षण वैद्यराज ,करते थे रोगों का निदान
पर जैसे जैसे प्रगति पर हम हुए अग्रसर ,पिछड़ गये
करते इलाज सब मर्जों का ,वो देशी नुस्खे बिछड़ गये
आती है जब जब याद मुझे ,अपने गाँव की ,बचपन की
मुझको झिंझोड़ती चुभती है, जगती अंतरपीड़ा मन की
शंशोपज में डूबा ये मन ,ये निर्णय ना ले पाया है
ये कैसी प्रगति है जिसमे ,कितना ,कुछ हमने गमाया है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '