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गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

वो दिन प्यारे नहीं  रहे

डियर,डार्लिंग,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे
दो तन एक जान वाले वो ,दावे सारे नहीं रहे

संगेमरमर सी सुन्दर तुम ,ताजमहल सी लगती थी
मुलाक़ात घंटों की तुमसे ,पल दो पल सी लगती थी
नींद नहीं आती थी और हम रात रात भर जगते थे
डूबे रहते ,सदा प्यार में ,हम दीवाने लगते थे
नाज़ और नखरे मनभाते ,अब वो तुम्हारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

चाचा ताऊ दादा दादी ,साथ साथ सब रहते थे
घर में कितनी रौनक रहती ,बच्चे सभी चहकते थे
मिल कर के त्योंहार मनाते ,होली और दिवाली सब
छायी रहती थी जीवन में ,मस्ती और खुश हाली तब
 वो  संयुक्त गृहस्थी का सुख  ,भाईचारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

हाथों से पंखा डुलता ,मटकी का पानी पीते थे
मेहनत करते ,चलते फिरते ,लम्बी आयु जीते थे
ईर्ष्या द्वेष नहीं था मन में ,सीधासादा  जीवन था
काम आना सुखदुख में सबके ,आपस में अपनापन था
स्वागत करने ,अतिथियों का ,बांह पसारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

दौड़ आधुनिकता की अंधी में, हम मर्यादा भूल गए  
बहे हवा में पश्चिम की निज संस्कृति के प्रतिकूल गए
वृक्षों की पूजा करना और पंछी को देना दाना
चींटी को आटा  बिखराना ,नव पीढ़ी ने ,कब जाना
संस्कार पहलेवाले सब ,अब वो हमारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
वो दिन प्यारे ना रहे

डियर,डार्लिंग,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे
दो तन एक जान वाले वो ,दावे सारे नहीं रहे

संगेमरमर सी सुन्दर तुम ,ताजमहल सी लगती थी
मुलाक़ात घंटों की तुमसे ,पल दो पल सी लगती थी
नींद नहीं आती थी और हम रात रात भर जगते थे
डूबे रहते ,सदा प्यार में ,हम दीवाने लगते थे
नाज़ और नखरे मनभाते ,अब वो तुम्हारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

चाचा ताऊ दादा दादी ,साथ साथ सब रहते थे
घर में कितनी रौनक रहती ,बच्चे सभी चहकते थे
मिल कर के त्योंहार मनाते ,होली और दिवाली सब
छायी रहती थी जीवन में ,मस्ती और खुश हाली तब
 वो  संयुक्त गृहस्थी का सुख  ,भाईचारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

हाथों से पंखा डुलता ,मटकी का पानी पीते थे
मेहनत करते ,चलते फिरते ,लम्बी आयु जीते थे
ईर्ष्या द्वेष नहीं था मन में ,सीधासादा  जीवन था
काम आना सुखदुख में सबके ,आपस में अपनापन था
स्वागत करने ,अतिथियों का ,बांह पसारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

दौड़ आधुनिकता की अंधी में, हम मर्यादा भूल गए  
बहे हवा में पश्चिम की निज संस्कृति के प्रतिकूल गए
वृक्षों की पूजा करना और पंछी को देना दाना
चींटी को आटा  बिखराना ,नव पीढ़ी ने ,कब जाना
संस्कार पहलेवाले सब ,अब वो हमारे नहीं रहे
डियर डार्लिंग ,इलू इलू के ,वो दिन प्यारे नहीं रहे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
कोरोना और हम

एक बरस में कोरोना ,आ पहुँचा  दूजे दौर में
प्यार के पहले चरण में ,अब भी है ,तू और मैं

कोरोना से बचना तो रखनी बना कर दूरियां
और हमारी दिनोदिन बढ़ रही है नज़दीकियां
लॉक डाउन कोरोना ने कर रखा  शहरों शहर
लॉक डाउन में  बंधे  रहते है हम शामो सहर
जोश तुम्हारा है कायम ,ना पड़ा कमजोर मैं
प्यार के पहले चरण में ,अब भी है. तू और मैं

मुंह पे पट्टी बाँध  बचना  कोरोना से  हिदायत
होठ तेरे और मेरे ,बंध के करते शरारत
हाथ धोवो ,कोरोना से ,बचोगे तुम हर कदम
हाथ धोकर ,एक दूजे के ,पड़े पीछे है हम
बढ़ती जाती कामनाएं ,दिल ये मांगे मोर में
प्यार के पहले चरण में ,अब भी है,तू और मैं

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

ओ भूमण्डल  की सुंदरियों

ओ इस धरती की ललनाओं ,ओ भूमण्डल की सुंदरियों
तुम रूप का अमृत बरसाओ ,जुगजुग जियो जुगजुग जियो

सब देवलोक की अप्सरा , देवों के खातिर आरक्षित
करती मनरंजन बस उनका ,यह बात सर्वथा है अनुचित
देवताओं ने कर रख्खा है ,उन पर अपना एकाधिकार
उनको चिर यौवन देकर वो ,सुख उठा रहे ,पा रहे प्यार
पृथ्वी पर उनसे भी सुन्दर ,है रमणी कई रूपवाली
पर कुछ वर्षों में खो देती,निज यौवन ,चेहरे की लाली
इसलिए ख्याल रख्खो अपना ,मेकअप का टॉनिक रोज पियो
तुम रूप का अमृत बरसाओ ,जुगजुग जियो ,जुगजुग जियो  

अपने तन की शोभा ,कसाव ,अक्षुण  रखना आवश्यक है
जब तक हो सके जवां रहना ,यह तुम्हारा भी तो हक़ है
लाली लगाओ तुम होठों पर ,और रखो गुलाबी गालों को
अच्छे शेम्पू ,कंडीशनर से ,तुम रखो मुलायम बालों को
आँखों को करके कजरारी ,नैनों के बाण चलाओ तुम
बन जाओ उर्वशी धरती की ,सबके उर में बस जाओ तुम
नखरे और अदा दिखा कर के ,सबका दिल लूटो सुंदरियों
तुम रूप का अमृत बरसा कर ,जुगजुग जियो ,जुगजुग जियो

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
सुबह सुबह होती है

सुबह सुबह होती है
ओस की बूँदें भी ,
बन जाती मोती है

बचपन जैसी निश्छल
धुली धुली  कोमल सी
मंद समीरण जैसी ,
कुछ चंचल चंचल सी
तरु के नव किसलय सी ,
खिलती हुई कली सी
खुशबू से महक रही ,
लगती है भली सी
अम्बर में तैर रही ,
एक पगली बदली सी
कुछ उजली उजली सी ,
कुछ धुंधली धुंधली सी
फुदक रहे पंछी सी ,
चहक रही चिड़िया सी
टुकुर टुकुर देख रही ,
नन्ही सी गुड़िया सी
थकी हुई रजनी ज्यों ,
लेती अंगड़ाई सी
आलस को भगा रही ,
आती जम्हाई सी
बालों को सुलझा कर ,
चमक रहे आनन की
हाथ में झाड़ू ले
बुहारते आँगन सी
पनिहारिन के सर पर ,
छलक रही गगरी सी
चाय की चुस्की सी
कुरमुरी मठरी सी
बछड़े की रम्भाहट
गाय के दूहन सी
मंदिर की घंटी सी ,
और घिसते चन्दन सी
सूरज की आभा जब ,
ज्योतिर्मय होती है
शुरुवात शुभ दिन की ,
सभी जगह होती है
सुबह, सुबह होती है  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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