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मंगलवार, 10 मई 2016

घर की बीबी

                 
                                     घर की बीबी

अजनबी शहर ,बड़ा भव्य ,बड़ा सुंदर हो,
                 एक दो दिन का भ्रमण ,ठीक भला लगता है
घूमलो ,फिरलो ,इधर उधर मस्तियाँ करलो ,
                   मगर सुकून तो घर पर ही मिला करता है
कितना ही गुदगुदा बिस्तर हो किसी होटल का,
                चैन की नींद ,घर की खटिया पर ही आती है
रसीले व्यंजनों को देख कर क्या ललचाना ,
                       भूख तो, दाल रोटी घर की ही मिटाती  है
भले ही खुशबू भरा और खूबसूरत है ,
                    मगर गुलाब वो औरों का है,मत  ललचाओ
तुम्हारे घर में जो जूही की कली मुस्काती,
                   उसी की खुशबू से ,जीवन को अपने महकाओ
पड़ोसी घर में भले लाख झाड़ फानूस है
                       ,हजारों शमाओं से जगमगाता आंगन है
आपके टिमटिमाते दीये की बदौलत ही ,
                      आपकी झोपड़ी ,छोटी सी रहती ,रोशन है
देख लो लाख गोरी गोरी मेमों के जलवे,
                        काम  में आती मगर ,आपकी ही बीबी है
तुम्हारे घर की वो ही खुशियां और रौनक है ,
                         तुम्हारी खैरख्वाह है और खुशनसीबी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डर

                                       डर

कोई को डर लगता कॉकरोच से है,,तो फिर कोई डरता है छिपकलियों से
कोई बादल गर्जन ,बिजली से डरता , तो कोई डरता अंधियारी गलियों से
कोई को ऊंचाई बहुत डराती है , तो कोई को डर लगता  गहरे जल से
कोई पुलिस से डरे ,कोई बदमाशों से ,कोई बॉस से डरता ,कोई टीचर से
सबके अलग अलग ,अपने डर होते है,गाहे बगाहे हमे डराया है करते 
बचपन में बच्चे डरते माँ बापों से ,   बच्चों  से  माँ बाप बुढ़ापे में डरते 
लेकिन शाश्वत सत्य एक है दुनिया में,हर शौहर अपनी बीबी से डरता है
एक इशारे भर पर जिसकी ऊँगली के ,बेचारा जीवन भर नाचा करता है
बीबी से डरने की अपनी लज्जत है,वह खिसियाना स्वाद निराला होता है
घर में चलता राज हमेशा बीबी का ,पर कहने को वो घरवाला  होता  है 
पत्नी पका खिलाये खाना कैसा भी ,डर के मारे तारीफ़ करनी पड़ती है
वर्ना रोटी के भी लाले पड़ जाते है,और सोफे पर सारी रात  गुजरती है
डर के कारण ही क़ानून व्यवस्था है ,डर से दफ्तर में रहता अनुशासन है
पास फ़ैल के डर के कारण बच्चों का ,करने में पढ़ाई लगता थोड़ा मन है
ऊपरवाला देख रहा है हर हरकत ,इस डर से हम बुरे काम से डरते है
डर मृत्यु का मन में सदा बना रहता ,दान धर्म,सत्कर्म इसलिए करते है
यम के डर के कारण दुनिया कायम है,उच्श्रृंखलता पर लगी हुई पाबंदी है
वर्ना लोभ,मोह और माया में दुनिया ,कुछ न देखती और हो जाती अंधी है
मेरा यह स्पष्ट मानना है लेकिन,जो शासित है,वो रहता अनुशासित है
डर डर,सम्भले,चले ,नहीं डर ठोकर का ,डर कर रहने में ही तो सबका हित है
कोई कहता भय बिन प्रीत नहीं होती ,कोई को थप्पड़ ना,प्यार डराता है 
बहुत घूम फिर,यही नतीजा  निकला है ,वह डर ही है,जो संसार चलाता  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 


कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

    कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

हम उस पीढ़ी की बहुएं थी ,जिनने सासों को झेला है
अब सास बनी तो झेल रही ,बहुओं का रोज झमेला है
इस त्रसित हमारी पीढ़ी ने ,झेला सासों का अनुशासन
उठ सुबह काम में जुत जाना ,चूल्हा,चौका,झाड़ू,बर्तन
उस पर भी सर पर घूंघट हो ,सासों की तानाशाही  थी
थोड़ी सी गलती हो जाती,मच जाती बड़ी  तबाही थी
ये भी न सिखाया क्या माँ ने ,कुछ भी ना आता तुम्हे बहू
इस तरह प्रताड़ित होने पर ,खाता उबाल था गरम लहू
पर मन मसोस रह जाते थे ,कुछ  ऐसे ही थे  संस्कार
कुछ हमे रोक कर रखता था ,अपने साजन का मधुर प्यार 
बस इसी तरह बीता यौवन , मन को समझा जैसे तैसे
हम भी जब सास बनेंगी तो ,फिर ऐश करेंगी कुछ ऐसे
लेकिन जब तक हम बनी सास,वो बात पुरानी नहीं रही
सब सास पना हम भूल गयी, उलटी गंगा इस तरह बही
 सारा सिस्टम ही बदल गया ,बहुओं के हाथ लगा पॉवर
सासें दिन भर सब काम करे ,और बहू रहे घर के  बाहर
अब सास संभाले बच्चों को,घर का सब काम,किचन,खाना
रहती है दब कर बहुओं से ,मुश्किल  होता कुछ कह पाना
हम बहू रही  या सास बनी,हमने हरदम दुःख पाये है
सासों का जलवा ख़तम हुआ ,अब बहुओं के दिन आएं है
रख ख्याल प्रतिष्ठा का कुल की ,कुछ पुत्र मोह के चक़्कर में 
कुछ बंधन पोते पोती का  ,रखता है बाँध  हमें घर में
भगवान बता ,तूने हम संग,ये खेल अजब क्यों खेला है
हम उस पीढ़ी की बहुएं  थी, जिनने  सासों को  झेला है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 7 मई 2016

परिवर्तन

                  परिवर्तन

साथ उमर के आया इतना परिवर्तन है ,
               हुई सूर्य की ऊर्जा ,चंदा की  शीतलता
धीरे धीरे ओज बदन का हुआ पलायन ,
            और हो गयी गुम सारी मन की चंचलता
 जिसे कभी घेरे रखती ,सुंदर ललनाये ,
             कई व्याधियों ने उस तन को घेर रखा है
उस जिव्हा को मिले खिचड़ी,दलिया खाने ,
            जिसने हरदम पकवानो का स्वाद चखा है 
बार बार करवट ले उनसे लिपटा करना ,
                याद बहुत आती वो रातें मधुर नेह की
बार बार उठ ,लगुशंका के निस्तारण को ,
                    जाने वाली रातें है, अब मधुमेह की
जो था कभी दमकता यौवन की कांति से,
                वह  कृषकाय शरीर ,झुर्रियों का पिंजर है
ज्योतिर्मय नयनो  पर मोटा सा चश्मा है,
               और दांत कितने ही,साथ छोड़ बाहर है 
कलुषित सारे कर्म,केश से श्वेत हो गए,
               अब तो स्मरण करते केवल रामनाम है
स्वर्ण हो गया ,रजत सूर्य ढलने के पहले ,
                  व्याप्त हो रही है शीतलता ,अविराम है
 थी कमनीय,कभी जो काया ,कहाँ खोगई ,
             अब खाते कम ,पचता कम,दिखता भी कम है
बची बहुत कम साँसें ,कम है दिन जीवन के ,
                 हाय बुढ़ापे  ,तूने कितने  , दिये   सितम  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'               

छत

                       छत

याद गाँव के घर आते जब ,हर एक घर पर छत होती थी
सर्दी ,गर्मी  हो  या  बारिश, हर  ऋतु  मे ,राहत  होती थी
जहां रोज सूरज की किरणे, अठखेलियां किया करती थी
शीतल ,मंद हवाएं अक्सर ,सुबह कुलांचे आ भरती  थी
बारिश की पहली रिमझिम में,यहीं भीज ,नाचा करते थे
और गर्मी वाली रातों में ,सांझ ढले ,बिस्तर  लगते थे
जहां मुंडेर पर बैठ सवेरे ,कागा देता था सन्देशा
करवा चौथ,तीज के व्रत में ,चाँद देखते ,वहीँ हमेशा
दिन में दादी,अम्मा,चाची ,बैठ यहां पंचायत करती
गेहूं बीनती,दाल सुखाती ,दुनिया भर की बातें करती
घर के धुले हुए सब कपड़े ,अक्सर ,यहीं सुखाये जाते
उस छत पर  मैंने सीखा ,कैसे नयन लड़ाये  जाते
सर्दी में जब खिली धूप में ,तन पर मालिश की जाती थी
तभी पड़ोसन ,सुंदर लड़की ,बाल सुखाने को आती थी
नज़रों से नज़रें मिलती थी ,हो जाता था नैनमटक्का
और इशारों में होता था ,कही मिलन का ,वादा पक्का
कभी लड़ाई,कभी दोस्ती,कितने ही रिश्ते जुड़ते थे
और यहीं से पतंग उड़ाते ,आसमान में हम उड़ते थे
किन्तु गाँव को छोड़ ,शहर जब,आया कॉन्क्रीट जंगल में
छत तो मिली,मगर छत का सुख ,नहीं उठा पाया पल भर मैं
मेरी छत,कोई का आंगन,उसकी छत पर कोई का घर
मुश्किल से सूरज के दर्शन ,खिड़की से हो पाते ,पल भर
बहुमंजिली इमारतों का ,ऐसा जंगल खड़ा हो गया
हम पिंजरे में बंद हो गए ,छत का सब आनंद खो  गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 


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