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मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

मै क्या पहनूं ?

       मै क्या पहनूं ?

अल्मारी में भरे हुए है,
कितने कपड़े ,कितने गहने
पर बाहर जाने के पहले ,
पत्नीजी ने हमसे पूछा ,
'हम क्या पहने ?
हम ने धीरे से कह डाला
'कुछ ना पहनो '
काहे को तुम करती हो,
 इतनी  माथापच्ची
बिन कुछ पहने भी तुम,
 मुझको लगती अच्छी
क्यों कपड़ों का बोझ,
 उठाती हो तुम तन  पर
वैसे ही साम्राज्य तुम्हारा,
 मेरे मन पर
लाख आवरण में ढक  लो ,
पर छुप ना पाती ,
तुम्हारे तन का ,
ये सौष्ठव और सुगढ़ता
सभी रूप मे तुम
 मुझको प्यारी लगती हो ,
कुछ भी पहनो ,
मुझको कोई फरक ना पड़ता

घोटू  
 

गुब्बारा

गुब्बारा

मै गुब्बारा ,हवा है तू ,
अगर मुझमे समाएगी
ख़ुशी से फूल ,हो पागल ,
हवाओं में उड़ेंगे हम
कोई नन्हा ,हमे बाहों में,
ले लेकर के चहकेगा ,
जरा सा जो चुभा काँटा ,
न तुम होगी,न होंगे हम

घोटू

वाह वाही

        वाह  वाही

कभी कभी ,ज्यादा वाहवाही
भी ला सकती है तबाही
गर्व के मारे आदमी ,
गुब्बारे सा फूल जाता है
अपने परायों का भेद भूल जाता है
पर जरा सा काँटा चुभने पर,
जब गुब्बारा फूटता है
तब भरम टूटता है
पर तब तक ,
बड़ी देर बड़ी हो चुकी होती है
पर क्या करें ,
वाहवाही आदमी की ,
सबसे बड़ी कमजोरी होती थी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

कोई छेड़े बुढ़ापे में

         कोई छेड़े बुढ़ापे में

बहुत सी आग होती है ,जवां सूरज के सीने में ,
मगर जब ढलने लगता तो नजारे और होते है
कली खिलती ,महकती है तो मंडराते कई भंवरें,
मगर मुरझाए फूलों के वो प्यारे और  होते है
बहारों में ,दरख्तों पर ,अलग ही नूर होता है ,
मज़ा तब है कि पतझड़ में भी ,वो हमको लगे प्यारे
सभी के मन लुभाती ,हर हसीना है जवानी में,
मज़ा आता बुढ़ापे में  ,कोई लाइन  जब मारे
चाहने वालों की जिनकी ,बड़ी फेहरिश्त होती थी ,
सुने फिकरे जवानी में ,न जाने कितने दिल तोड़े
बुढ़ापे में भी रह रह कर ,सताया करती  है उनको,
जवानी वाली वो यादें ,कभी पीछा  नहीं छोड़े
गयी रौनक ,गयी मस्ती ,उमर का मोड़ ये ऐसा ,
अगर इसमें भी दीवाना ,कोई  दिल को लुटाता है
तसल्ली मिलती है दिल को ,अभी भी बाकी हम में दम ,
शगल ये छेड़खानी का ,बड़ा दिल को सुहाता  है
किसी ने मुस्करा कर के ,अगर दो बात जो करली ,
न पड़ता फर्क मियां को ,न दुनिया को ही होता शक
भले तन में नहीं हिम्मत ,बदलना स्वाद पर चाहें ,
दबी दिल की तमन्नाएं ,भड़कती रहती है जब तब
पुराने राजमहलों की भी अपनी शान होती है ,
करे तारीफ़ कोई तो,दीवारें मुस्कराती है
हम हंस हंस कर उठाते है ,मज़ा ये छेड़खानी का ,
हमें बीती हुई अपनी  ,जवानी  याद आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

यूं ही तो बात ना बनती

      यूं ही तो बात ना बनती

कोई पत्ता ,कहीं एक डाल का ,पीला पड़ा होगा ,
समझ ये लोग बैठे कि ,आगई ऋतू है बासंती
                             यूं ही  तो बात ना बनती
 अगर फैला है अंधियारा तो सूरज ढल गया होगा,
दिखी है रौशनी थोड़ी , कहीं दीपक जला  होगा
उछलती कूदती गंगा ,जो उतरी है  पहाड़ों से ,
किसी हिमखंड का सीना,कहीं से तो गला होगा
निमंत्रण कुछ तो लहरों ने समंदर की दिया होगा ,
नहीं तो बावरी नदियां ,मिलन को यूं नहीं भगती
                                   यूं ही तो बात ना बनती
कोई चिंगारी उड़ कर के,कहीं से आई तो होगी ,
समझ कर आग लोगों ने ,यूं ही हलचल मचा डाली
और कुछ नारदो  की टोलियों ने लगा कर  तिकड़म ,
जरा सी बात जो भी थी ,बतंगड़ सी बना  डाली
बहुत कोशिश थी जल जाए लेकिन थोड़ा ही सुलगा ,
नहीं तो धुवाँ ना उठता   ,ये थोड़ी आग ना लगती
                                   यूं ही तो बात ना बनती
दबा था बीज छोटा सा ,पनपता देख कर उसको ,
पुराने बरगदों में चिंताएं अस्तित्व की छायी
आसुरी ताक़तों ने पनपता देवत्व जब देखा ,
बिलों से भीड़ साँपों की,तिलमिला कर निकल आई
किसी इन्दर ने छलबल से धरा था रूप गौतम का,
अहिल्या सी सती  नारी ,यूं ही पाषाण ना बनती
                                  यूं ही तो बात ना बनती  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
                                   

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