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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

शमा और परवाने

          शमा और परवाने

शमा जब जब भी जलती है,चले आते है परवाने ,
        खुदा ने ये मोहब्बत की ,रसम भी क्या,बनाई है
इधर परवाने जलते है ,उधर शायर ग़ज़ल कहते ,
         किसी की जान जाती है,किसी की वाह वाही है
किसी को क्या पडी किसकी साधते अपना मतलब सब,
           उन्हें करना था घर रोशन ,शमा जिनने  जलाई है
अगर ये ही रहा आलम, कौम का हश्र होगा,
           फना परवाने सब होंगे , तबाही  ही  तबाही  है
सभा ने परवानो की कल,मुकदमा कर दिया दायर ,
           उसे फांसी पे लटका दो  , शमा जिसने  बनाई है
सयाने ने सलाह दी हर चमन पे चिपके एक    नोटिस ,
           'यहाँ मधुमख्खियों का दाखिला  करना  मनाही है'
न बैठेंगी गुलों पर  वो ,न छत्ता और न मोम होगा ,
            शमाएँ बन न पाएंगी ,तो रुक सकती   तबाही है
तभी परवाना एक बोला ,शमा है तब तलक हम है ,
             शमा की ही बदौलत तो ,हमने  पहचान  पायी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बंधन- धागों का

               बंधन- धागों का
बचपन में,मेरी माँ ने,
मेरे  गले में ,एक काला धागा पहनाया था
मुझे जमाने की बुरी नज़र से बचाया था
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ,
तो हुआ मेरा यज्ञोपवीत संस्कार
और धूमधाम और कर्मकांड के बाद,
 तीन धागों की जनेऊ ,
मुझे पहनाई गयी ,अबकी बार
जवान होने पर,
इन्ही धागों में था फूलों को गूंथ डाला
और मेरे गले में ,
मेरी दुल्हन ने डाली थी वरमाला
और मैंने भी उसके गले में ,
मंगलसूत्र   पहनाया था         
और इन्ही धागों  ने ,
मुझे गृहस्थी के जाल में फंसाया था
कभी बहना ने मेरी कलाइ पर,
राखी का धागा बाँध ,
अपने प्यार को दर्शाया  
कभी पंडितों से,
हर पूजा और कर्मकांड के बाद ,
कलाई पर कलावे का धागा बंधवाया
जीवन भर इंसान ,
उलझा हुआ रहता है, धागों के जाल में
और उसकी अरथी को भी,
धागों से बाँधा जाता है,अंतकाल में
जीवन की सुई में ,इंसान,
धागों की तरह ,बार बार पिरोया जाता है ,
और इसी तरह उम्र कटती है
और मरने बाद ,किसी दीवार पर ,
इन्ही धागों से ,उसकी तस्वीर लटकती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 26 अप्रैल 2015

भूकम्प

            भूकम्प

जब घर हिलता,तो घरवाले ,छोड़ छोड़ घर ,जाते बाहर
घरवालों के घर  को छोड़े  जाने  से भी ,हिलता है  घर
जो घर हमें आसरा देता , उसे छोड़ देते   मुश्किल  में
पहले फ़िक्र सभी को अपनी ,घर की कोई फ़िक्र न दिल में
पिता सरीखा ,घर संरक्षक ,और माता जैसी धरती है
यह व्यवहार देख बच्चों का ,ही धरती कांपा करती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रहम करो - रहम करो त्राहि माम - त्राहि माम...


सभी भूकम्प पीड़ितों के प्रति हार्दिक संवेदना
एवं प्रभावित क्षेत्र के सभी लोगों के लिये
ईश्वर से प्रार्थना के साथ...एक भाव, 
जो अनायास ही आ गया मन में...

कभी भूकंप - कभी बाढ़
कभी सूखा - कभी सुनामी
कभी दंगे - कभी दुर्घटना,
जैसे इस बहाने ईश्वर 
चाहता हो ये कहना कि
'भय बिनु होय न प्रीति...'
क्योंकि अगर न हों ये आपदायें
मनुष्य का शक्तिशाली मस्तिष्क
कहां मानेगा उसकी सत्ता को
कहां स्वीकारेगा उसकी प्रभुता को...
होती तो है पूरी कोशिश
होता तो है पूरा प्रयास कि
खोज ली जाये पूरी तकनीक
निचोड़ लिया जाये पूरा विज्ञान
सुलझा ली जायें सारी समस्यायें
जीत ली जायें सारी दिशायें
जीत लिया जाये पूरा ब्रह्माण्ड
गढ़ लिया जाये 
अपने जैसा दूसरा मानव,
गढ़ दिया जाये 
साक्षात ईश्वर को भी
गॉड पार्टिकल के रूप में...
लेकिन तभी लगता है एक झटका
और धरी की धरी रह जाती है
सारी तकनीक - सारा विज्ञान
सारी की सारी विद्यायें,
तब निकलता है मुँह से
'हे ईश्वर - या ख़ुदा - ओ गॉड
या फिर हे राम
रहम करो - रहम करो
त्राहि माम - त्राहि माम...'

- विशाल चर्चित

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

बुजुर्गों की पीड़ा

         बुजुर्गों की पीड़ा

हमारे एक बुजुर्ग मित्र,जो कभी हँसमुखी थे
अपने बच्चों के व्यवहार से,काफी दुखी थे
हमने समझाया,आपको रखना पडेगा थोड़ा सबर
क्योंकि ये जनरेशन गेप है याने पीढ़ियों का अंतर
इसलिए 'एडजस्ट 'करने में ही है समझदारी
खोल दो अपने दिल की बंद खिड़कियां सारी
इससे आपके नज़रिये में बदलाव आएगा
आपका दुखी जीवन संवर जाएगा
हमारी बात सुन कर ,वो गए बिफर
और बोले ये सब खिड़कियां खोलने का ही है असर
जब तक खिड़कियां बंद थी ,सुख था ,शांति थी,
घर में हमारी ही चलती थी
और खिड़कियां खोलना ही हमारी,
सब से बड़ी गलती थी
जब से बाहर की हवा के झोंके ,
खिड़कियों से अंदर आये है
ये अपने साथ धूल और गंदगी लाये है
मच्छर भिनभिनाते है ,
मख्खियां मंडराने लगी है
हमारी व्यवस्थित गृहस्थी ,
तितर बितर होकर,डगमगाने  लगी है
ये हमारे खिड़कीखोलने का ही है नतीजा
अब मक्की की रोटी नहीं बनती ,
हमारे घर आता है'पीज़ा'
इन बाहरी ताक़तों ने ,मेरे बच्चों पर ,
अपना कब्जा जमा लिया है
और धीरे धीरे मुझे बेबस बना दिया है
मेरा वजूद घटता जा रहा है ,
और मैं एक पुराने किले सा ढह गया हूँ
सिर्फ वार त्योंहार के अवसर   पर,
पाँव छूने की चीज बन कर रह गया हूँ
मेरे मन में यही बात खट रही है
जैसे जैसे मेरी उमर बढ़ रही है
मेरी  कदर घट   रही  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'    

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